साहित्य और समाज

साहित्य समाज का दर्पण है

 रूपरेखा - (1) प्रस्तावना (2) साहित्य पर समाज का प्रभाव (3) साहित्य द्वारा समाज सुधार (4) साहित्य का अभिप्राय (5) हिंदी साहित्य में समाज का स्वरूप (6) उपसंहार
"अपनी संस्कृति अपना देश, अपनी भाषा अपना वेष।"

प्रस्तावना -

साहित्यकार मस्तिक, बुद्धि और हृदय से संपन्न एक सामाजिक प्राणी हैं। वह समाज से अलग हो ही नहीं सकता, क्योंकि उसकी अनुभूति का संपूर्ण विषय, उसकी समस्याएं, मानव जीवन और जीवन के मूल्य हैं, जिनमें वह सांस लेता है। जब कभी उसे घुटन की अनुभूति होती है तभी उसकी अभिव्यक्ति साहित्य के रूप में प्रगट हो जाती है। समाज से उसका यह रिश्ता उसे साहित्य सृजन की प्रेरणा देता है और तभी उसके साहित्य और समाज स्वीकार भी करता है।

साहित्य पर समाज का प्रभाव -

सामाजिक प्रभाव और दबाव की उपेक्षा कर साहित्यकार एक कदम भी आगे नहीं चल सकता और यदि चलता भी है तो आवश्यक नहीं कि साहित्य पर  समाज का यह प्रभाव सदैव अनुकूल हो, वह प्रतिकूल भी हो सकता है। कबीर की साखियों तथा प्रेमचंद के कथा साहित्य के अध्ययन से यही बात स्पष्ट होती है। कबीर ने अपने समय के धार्मिक बाह्म आडम्बरों, सामाजिक बुराइयों, रूढ़ियों एवं खोखली मान्यताओं के विरोध में अपना स्वर बुलन्द किया। निराला के साहित्य में ही नहीं वरन् उनके व्यक्तिगत जीवन में भी यही संघर्ष बराबर बना रहा। प्रेमचंद्र की कहानियों और उपन्यासों में सभी जगह किसी ना किसी सामाजिक समस्या के प्रति उनकी गहरी संवेदना दिखाई देती है।

साहित्य द्वारा समाज सुधार

साहित्य समाज का दर्पण होता है, किंतु इस बात का यह अर्थ कदापि नहीं है कि साहित्यकार समाज का फोटोग्राफर है और सामाजिक विषमताओं, कमियों, अंधविश्वासों और मान्यताओं का यथार्थ चित्रण करना उसका उद्देश्य होता है। साहित्य युग और समाज का होकर भी युगांतकारी जीवन मूल्यों की प्रतिष्ठा कर सुन्दरतम समाज का जो भी रूप हो सकता है उसका भी एक रेखाचित्र प्रस्तुत करता है। उसमें रंग भरकर जीवन्तता प्रदान कर देना पाठकों एवं समाज का कार्य होता है।

साहित्य का अभिप्राय -

"ज्ञान - राशि के संचित कोश का नाम साहित्य है।" महावीर प्रसाद द्विवेदी के इस कथन से भी यह बात स्पष्ट है कि किसी भी देश, जाति अथवा समाज की सभ्यता और संस्कृति का स्पष्ट चित्रण उसका साहित्य है। प्रत्येक युग का उत्तम और श्रेष्ठ साहित्य अपने प्रगतिशील विचारों, रचनात्मक संस्कारों एवं भावात्मक संवेदनाओ को एक स्वरूप प्रदान करता है।

हिंदी साहित्य में समाज का स्वरूप -

जिस काल में जिस जाति की जैसी सामाजिक परिस्थितियां होंगी, उसका साहित्य भी नि:सन्देह वैसा ही होगा। हिन्दी साहित्य के संदर्भ में यह तथ्य देखा जा सकता है। आदिकाल, जिसे हम वीरगाथा काल भी कहते हैं, उस युग का साहित्य युद्ध और आश्रयदाताओं की प्रशसि्तयों से भरा पड़ा है।
   फिर मध्यकाल का भक्ति आंदोलन प्रकट हो सामने आया और इस युग ने कबीर, सूरदास, तुलसी और जायसी जैसे कवियों को जन्म दिया।
युग बदल गया और देश अंग्रेजों के चंगुल में जा फंसा। सदियों से पराधीन देशवासियों में निराशा फैल गयी। विदेशियों की दमन  - नीति बढ़ने लगी। साहित्य मोन न रह सका। भारतेन्दु हरिश्चंद्र, प्रताप नारायण मिश्र, बालकृष्ण भट्ट, जयशंकर प्रसाद, प्रेमचन्द, मैथिलीशरण गुप्त जैसे महान साहित्यकारों ने अपनी रचनाओं के माध्यम से निराश भारतीयों में एक नये विश्वास और नई चेतना को जाग्रत करते हुए समय की पुकार सुनी। निम्नलिखित पंक्तियों में न जाने कितने देशभक्त नवयुवकों को अपनी मातृभूमि के चरणों पर शीश चढ़ाने की प्रेरणा दी -
"मुझे तोड़ लेना वनमाली,
उस पथ पर तुम देना फेंक।
मातृभूमि पर शीश चढ़ाने,
जिस पथ जाते वीर अनेक।।"

 उपसंहार -

किसी भी देश और जाति की सांस्कृतिक चेतना का स्पष्ट चित्र उस देश अथवा जाति में बोली जाने वाली भाषा के साहित्य में दिखाई देता है, क्योंकि समाज और साहित्य एक दूसरे से अभिन्न हैं। एक के बिना दूसरे की कल्पना भी संभव नहीं है। रामायण, महाभारत, रघुवंश, शिशुपाल वध, रामचरितमानस, पद्मावत, प्रियप्रवास, साकेत, कामायनी एवं गोदान आदि इसके ज्वलन्त उदाहरण है। साहित्यकार युग का चित्रकार होता है। उसके साहित्य में अपने समाज का जीवन जीवित होता है। इसी अर्थ में वह उसका दर्पण होता है।
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