रस

श्रव्य काव्य पढ़ने या दृश्य काव्य देखने से पाठक, श्रोता या दर्शक को जो एक अलौकिक आनंद प्राप्त होता है, उसे 'रस' कहते हैं। 'रस को काव्य की आत्मा' कहा गया है। संस्कृत में 'रस शब्द की उत्पत्ति 'रसस्वते असो इति रसा:' के रूप में की गई है अर्थात् जिसका आस्वादन किया जाय, वही रस है, परन्तु साहित्य में काव्य को पढ़ने, सुनने या उस पर आधारित अभिनय देखने से जो आनंद प्राप्त होता है, उसे 'रस' कहते हैं ।
भरतमुनि ने अपने नाट्यशास्त्र में रस की निष्पत्ति के विषय में लिखा है - 'विभावानुभावव्यभिचारि संयोगाद्रस निष्पत्तिः' अर्थात् विभाव, अनुभव और व्यभिचारी  (या संचारी) भावों के संयोग से रस की निष्पत्ति (अभिव्यक्ति) होती है।
 काव्य में रस का वही स्थान है जो शरीर में आत्मा का है। रस काव्य की आत्मा है।
काव्य में रस का अर्थ आनन्द से लिया जाता है। यह आनन्द साधारण या लौकिक आनन्द नहीं होता। साहित्य शास्त्र में रस का अर्थ अलौकिक या लोकोत्तर आनंद होता है।

रस की परिभाषा -

काव्य के पढ़ने, सुनने अथवा उसका अभिनय देखने में पाठक, श्रोता या दर्शक को जो आनंद मिलता है, वही काव्य में रस कहलाता है।
रस निष्पत्ति - हृदय में स्थायी भाव का जब विभाव, अनुभाव और संचारी भावों से संयोग होता है, तब रस की निष्पत्ति होती है।
रस के अंग (अवयव)
रस के प्रमुख अंग -
  1. स्थाई भाव,
  2. विभाव
  3. अनुभाव
  4. संचारी भाव या व्यभिचार भाव है।

1 स्थाई भाव - 

स्थाई भाव सहृदय के अंतर (हृदय) में सुप्त अवस्था में रहता है और उचित अवसर पर जाग्रत एवं पुष्ट होकर रस के रूप में परिणित हो जाते हैं। इनकी संख्या 11 है।

 रस और उनके स्थाई भाव

           रस                 स्थाई भाव
  1. श्रृंगार                रति
  2. हास्य                 हास
  3. करुण                शोक
  4. रौद्र                    क्रोध
  5. वीर                    उत्साह
  6. भयानक             भय
  7. अद्भुत              आश्चर्य
  8. वीभत्स               जुगुप्सा (ग्लानि)
  9. शांति                 निर्वेद
  10. वात्सल्य             वत्सलता
  11. भक्ति गीत         विषयक रति
इनमें दो स्थाई भाव - वत्सलता और देव विषयक रति को श्रृंगार के अंतर्गत शामिल किया गया है।

2 विभव - 

स्थाई भाव की उत्पत्ति के कारण को विभाव कहते हैं। विभाव दो प्रकार के होते हैं - 1 आलम्बन विभाव, 2 उद्दीपन विभाव।

1 आलम्बन विभाव -

 वह कारण जिस पर भाव अवलमि्बत रहता है, अर्थात् जिस व्यक्ति या वस्तु के प्रति हृदय में स्थाई भाव उत्पन्न होता है, उसे आश्रय कहते हैं। पुत्र रोहिताश की मृत्यु पर विलाप करती हुई रानी शैव्या आश्रम है और रोहिताश का मृत शरीर आलम्बन है। शोक स्थाई भाव है।

2 उद्दीपन विभाव - 

स्थाई भाव को उद्दीप्त करने वाले विभाव को उद्दीपन विभाव कहते हैं। जैसे - भय स्थाई भाव को उद्दीपन करने के लिए सिंह की गर्जन, जंगल की भयानकता आदि उद्दीपन विभाव है।

3 अनुभव - 

स्थाई भाव के जाग्रत होने पर आश्रय की बाह्य चेष्टाओं को अनुभव कहते हैं, जैसे - भय उत्पन्न होने पर हक्का-बक्का हो जाना, काँपना और पसीने से तर हो जाना। 4 संचारी या व्यभिचारी भाव - आश्रम के मन में उठने वाले  असि्थर मनोविकारों को संचारी भाव या व्यभिचारी भाव कहते हैं। ये संचारी या व्यभिचारी भाव स्थाई भावो को गति प्रदान करते हैं तथा उसे व्यापक रूप देते हैं। स्थाई भावों को पुष्ट करके स्वयं समाप्त हो जाते हैं।

 श्रृंगार रस -

श्रृंगार रस की निष्पत्ति 'रति' स्थाई भाव के संयोग से होती है। इसके दो भेद हैं -(1) संयोग श्रृंगार, (2) वियोग श्रृंगार।
   संयोग श्रृंगार रस में नायक नायिका के संयोग (मिलन) की स्थिति का वर्णन होता है।

 उदाहरण -

                   "बतरस लालच लाल की मुरली धरी लुकाय।
                  सौंह करें, भौंहनि हंसै, दैन कहे नटि जाय।।

 वियोग श्रृंगार रस में नायक -

नायिका के बिछुड़ने का तथा दूर देश में रहने की स्थिति का वर्णन, वियोग श्रृंगार का व्यंजना करता है।

 उदाहरण -

"आँँखों में प्रियमूर्ति थी, भूले थे सब भोग।
 हुआ योग से भी अधिक, उसका विषम वियोग।।"

 वीर रस -

वीर रस का स्थाई भाव उत्साह होता है। इस रस की निष्पत्ति ओजस्वी वीर घोषणाओं या वीर गीतों को सुनकर अथवा उत्साह बढ़ाने वाले कार्यकलापों को देखने से होती है।

 उदाहरण -

" वह खून कहो किस मतलब का, जिसमें उबाल का नाम नहीं।
वह खून कहो किस मतलब का, जिसमे जीवन की रवानी नहीं।।

 करुण रस -

प्रिय वस्तु के विनाश अथवा अनिष्ट के होने से चित्त में आती हुई विकलता करुण रस को उत्पन्न करती है।

 उदाहरण -

"अभी तो मुकुट बँधा था माथ, हुए कल ही हल्दी के हाथ, खुले भी न थे लाज के बोल, खिले भी न चुम्बन - शून्य कपोल,
हाय ! रुक गया यहींं संसार बना सिंदूर अंगार।।"
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