गद्य — भारती
पाठ — 4
गेहूॅ और गुलाब (रामवृक्ष बेनीपुरी)
सन्दर्भ एवम् प्रसंग सहित महत्वपूर्ण व्याख्याएॅ —
''बेचारा गुलाब भरी जवानी में कहीं सिसकियॉ ले रहा है। शरीर की आवश्यकता ने मानसिक कृतियों को कहीं कोने में डाल रखा है, दबा रखा है। किन्तु चाहे कच्चा चरे या पकाकर खाए — गेहूॅ तक पशु और मानव में क्या अंतर? मानव को मानव बनाया गुलाब ने। मानव, मानव तब बना, जब उसने शरीर की आवश्यकताओं पर मानसिक वृत्तियों को तरजीह दी।''
सन्दर्भ — उपर्युक्त गद्यांश श्री रामवृक्ष बेनीपुरी द्वारा लिखित 'गेहूॅ और गुलाब' शीर्षक निबन्ध से अवतरित किया गया है।
प्रसंग — लेखक ने इस गद्याांश में मानव — जीवन में शारीरिक तथा मानसिक उन्नति का तुलनात्मक महत्व प्रस्तुत किया है। उसने गेहूॅ को भौतिक सुख — समृद्धि का और गुलाब को मानसिक वृत्तियों का प्रतीक बताया है। वह लिखता है —
व्याख्या — आज सारे विश्व में गेहूॅ अर्थात् भौतिक सुख — सुविधा की प्राप्ति पर अत्यधिक बल दिया जा रहा है। 'गुलाब' अर्थात् मानसिक सुसंस्कार की निरन्तर उपेक्षा हो रही है। आज तो मनुष्य को सांस्कृतिक या आध्यात्मिक दृष्टि से पूर्ण विकसित होना चाहिए था, किन्तु उसके जीवन का यह पक्ष अत्यन्त दीन — हीन दिखाई दे रहा है। बेचारी मानसिक वृत्तियॉ कहीं उपेक्षा के कोने में पड़ी सिसकियॉ भर रही है। आर्थिक, वैज्ञानिक, तकनीकी, राजनीतिक आदि सभी प्रकार की उन्नति पर मनुष्य का ध्यान केन्द्रित है, किन्तु मन के संस्कार पर, भावनात्मक प्रगाढ़ता पर और सौन्दर्य बोध पर उसका ध्यान नहीं है।
लेखक का कहना है कि मनुष्य और पशु की पहचान भोजन या भौतिक समृद्धि से नहीं की जा सकती। पशु कच्चा भोजन खाता है। और मनुष्य पकाकर। केवल पकाकर खाने मात्र से मनुष्य पशु से श्रेष्ठ नहीं माना जा सकता। मनुष्य को पशु स्तर से ऊॅचा उठाकर वर्तमान अवस्था तक पहुॅचाने वाली मन की सुसंस्कृत प्रवृत्तियॉ हैं। साहित्य, संगीत, कला, सौहाद्र्र, सौन्दर्य आदि से लगाव तथा मानवीय मूल्यों को सम्मान देना वे गुण हैं, जो मानव को मानव सिद्ध करते हैं। शारीरिक आवश्यकताओं की अपेक्षा मन की श्रेष्ठ वृत्तियों को अधिक महत्व देने से ही मनुष्य — मनुष्य बन पाया है।
विशेष —
- लेखक ने मनुष्य और पशु के बीच विभाजक रेखा के लिए सटीक आधार चुना है।
- मानसिक वृत्तियों का सुसंस्कार ही मनुष्यता का चिन्ह है, यह मत व्यक्त किया गया है।
- भाषा सरल, सरस एवं प्रवाहयुक्त है।
- शैली भावात्मक एवं प्रतीकात्मक है।
''रात का काला — घुप्प पर्दा दूर हुआ, तब वह उच्छवासित हुआ, सिर्फ इसलिए नहीं कि अब पेट — पूजा की समिधा जुटाने में उसे सहुलियत मिलेगी, बल्कि वह आनन्द — विभोर हुआ उषा की लालिमा से, उगते सूरज की शनै: — शनै: प्रस्फुटित होने वाली सुनहरी किरणों से, पृथ्वी पर चमचम करते हुए लक्ष — लक्ष ओस — कणों से। आसमान में जब बादल उमड़े, तब उनमें अपनी कृषि का आरोप करके ही वह प्रसन्न नहीं हुआ, उसके सौन्दर्य — बोध ने उसके मन — मोर को नाच उठने के लिए लाचार किया। इन्द्रधनुष ने उसके हदय को भी इन्द्रधनुषी रंगों में रंग दिया।''
सन्दर्भ — उपर्युक्त गद्यांश श्री रामवृक्ष बेनीपुरी द्वारा लिखित 'गेहूॅ और गुलाब' नामक निबन्ध से उद्धृत किया गया है।
प्रसंग — उक्त गद्यांश में निबन्धकार ने यह प्रतिपादित करने का प्रयास किया है, कि मानव जीवन में गेहूॅ और गुलाब दोनों का समान महत्व रहा है।
व्याख्या — आदिम मानव के जीवन में भी शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति कर लेना ही एकमात्र उद्देश्य नही था। मानसिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए भी वह लालायित रहता था। रात्रि का अन्धकार दूर होने पर जब प्रात: काल होता था, तो उस आदिम मानव को बड़ा आनन्द होता था। इस प्रसन्नता का कारण केवल यह नहीं होता था कि दिन के प्रकाश में उसे भोजन — सामग्री जुटाने में सुविधा होगी, बल्कि प्रात: काल के मनोरम दृश्य भी उसके मन को आनन्दित किया करते थे। ऊषा की लालिमा का दृश्य, सूर्योदय के साथ प्रकट होती सुनहली किरणों का दृश्य और धरती पर चमकती लाखों ओस की बूॅदों का दृश्य भी उसे आनन्दित किया करता था। वर्षा — ऋतु में घिरने वाले बादलों को देखकर आनन्दित होने का कारण मात्र इतना ही नहीं होता था कि वर्षा होने से उसकी खेती को लाभ पहॅुचेगा, अपितु वर्षा के मनोहारी दृश्यों की सुन्दरता का अनुभव करके भी वह प्रसन्न हुआ करता था। वर्षा — ऋतु के विविध दृश्यों को देखकर उसका हदय मोर की भॉति नाच उठने को बाध्य हो जाता था। इन्द्र — धनुष के रंग — बिरंगे सौन्दर्य से उसका हदय भी सुख और हर्ष के नाना रंगों में रंग जाता था। ऐसा इसी कारण होता था कि आदिम मानव के जीवन में शारीरिक आवश्यकताओं के साथ — साथ मानसिक आवश्यकताओं का पूर्ण महत्व था। वह शारीरिक और मानसिक दोनों प्रकार की तृप्ति चाहता था।
विशेष —
- मानव — जीवन में गेहूॅ और गुलाब दोनों का समान महत्व रहा है, इस तथ्य को लेखक ने कुशलता से सिद्ध किया है।
- भाषा साहित्यिक और व्यावहारिक शब्दावलीयुक्त है।
- शैली भावात्मक और आलंकारिक है।
'' मानव शरीर में पेट का स्थान नीचे है, हदय का ऊपर और मस्तिष्क का सबसे ऊपर। पशुओं की तरह उसका पेट और मानस समानान्तर रेखा में नहीं है। जिस दिन वह सीधे तनकर खड़ा हुआ, मानस ने उसके पेट पर विजय की घोषणा की। गेहॅू की आवश्यकता उसे है, किन्तु उसकी चेष्टा रही है, गेहूूॅ पर विजय प्राप्त करने की। प्राचीन काल के उपवास, व्रत, तपस्या आदि उसी चेष्टा के भिन्न — भिन्न रूप रहे हैं।
सन्दर्भ — प्रस्तुत गद्यांश पाठ्य — पुस्तक में संकलित 'गेहूॅ और गुलाब' शीर्षक निबन्ध से लिया गया है। इसके लेखक श्री रामवृक्ष बेनीपुरी है।
प्रसंग — इस गद्यांश में लेखक ने मानव — जीवन में शारीरिक आवश्यकताओं, भावनाओं तथा मानसिक तृप्ति का स्थान और महत्व प्रतिपादित किया हे। वह लिखता है —
व्याख्या — यदि पशु और मनुष्य के शरीर का तुलनात्मक निरीक्षण करें तो एक महत्वपूर्ण अन्तर दिखाई पड़ेगा। मनुष्य के शरीर में मस्तिष्क सबसे ऊपर है और पेट सबसे नीचे। मस्तिष्क को चाहिए विचार, मनोरंजन, अभिव्यक्ति और पेट को चाहिए भोजन। इसका अर्थ है कि मानव — जीवन मेें गुलाब का स्थान और महत्व गेहूॅ से अधिक है। बिना सांस्कृतिक प्रगति के केवल भौतिक प्रगति करके मनुष्य सुखी नही रह सकता। पशु के शरीर में पेट, हदय और मस्तिष्क एक ही धरातल पर हेाते है। इसका यही अर्थ हुआ कि पशु — जीवन में शारीरिक, मानसिक एवं बौद्धिक आवश्यकताओं का समान स्थान तथा महत्व है। पशु — जीवन में भावनाओं तथा विचारों का कोई विशेष महत्व नहीं है। कहते है कि मनुष्य भी पहले वानरों की भॉति चारो हाथ — पैरों से चलता था। वह एक विशेष प्रकार का पशु ही था। उसका पेट और मस्तिष्क समान धरातल पर थे, लेकिन जैसे ही उसने दो पैरों पर चलना आरम्भ किया, उसका मस्तिष्क सबसे ऊपर हो गया। इसका प्रतीकार्य है कि मानव होने की पहली शर्त यही है कि मस्तिष्क या मन सर्वप्रधान रहे। सांस्कृतिक और आध्यात्मिक प्रगृति के बिना मानव — जीवन अधूरा है।
यद्यपि 'गेहूॅ' अर्थात शारीरिक आवश्यकताओं की तुष्टि के बिना भी मनुष्य का काम नहीं चल सकता, फिर भी मनुष्य ने सदा से गेहॅॅू (भौतिक सुख — सुविधाओं की भूख) पर विजय पाने की चेष्टा की है। उपवास करके, व्रत रखकर या तपस्या करते हुए मनुष्य शरीर पर मन तथा बुद्धि के नियन्त्रण का ही प्रयत्न करता आ रहा है।
विशेष —
- मनुष्य और पशु की शारीरिक संरचना में भिन्नता दिखाकर लेखक ने मानव — जीवन में मानसिक वृत्तियों की प्रधानता प्रदर्शित की है।
- भाषा व्यावहारिक है। शैली व्याख्यात्मक एवं विचारात्मक है।
''जब तक मानव के जीवन में गेहूॅ और गुलाब का संतुलन रहा, वह सुखी रहा, सानन्द रहा। वह कमाता हुआ गाता था और गाता हुआ कमाता था। उसके श्रम के साथ संगीत बॅधा हुआ था और संगीत के साथ श्रम। उसका सॉवला दिन में गायें चराता था, रात में रास रचाता था। पृथ्वी पर चलता हुआ वह आकाश को नहीं भूला था और जब आकाश पर उसकी नजर पड़ी थी, उसे याद था कि उसके पैर मिट्टी पर है।
सन्दर्भ — प्रस्तुत गद्यांश श्री रामवृक्ष बेनीपुरी के प्रसिद्ध 'गेहूॅ और गुलाब' से अवतरित है।
प्रसंग — इस निबंध में लेखक ने विवेचित किया है कि जब तक मनुष्य ने अपने जीवन में शारीरिक एवं मानसिक आवश्यकताओं को समान महत्व प्रदान किया, तब तक उसका जीवन सुखी रहा। वह लिखता है —
व्याख्या — मानव — जीवन में बहुत समय तक शारीरिक आवश्यकताओं तथा मानसिक वृत्तियों को समान महत्व और स्थान प्राप्त रहा। इस सन्तुलन के चलते मनुष्य — जीवन सुखी और प्रसन्न रहा। उसकी आर्थिक क्रियाओं के साथ मानसिक तुष्टि की सहज क्रियाएॅ चलती थी। वह हल जोतते हुए तथा श्रम करते हुए गाता था। इस प्रकार परिश्रम और संगीत का सहज समन्वय उसके जीवन को स्वाभाविक आनन्द प्रदान करता था। शरीर और मन की तुष्टि का यह संतुलन, मनुष्य के द्वारा आराधित महापुरूषोें और अवतारों के जीवन में भी प्रदर्शित किया जाता था। श्रीकृष्ण का गोचारण जहॉ श्रम को महत्व प्रदान करता था, वहीं उनका वंशीदान और रास — क्रीड़ाएॅ मन के रंजन की आवश्यकता पर भी बल देती है। उस समय मनुष्य का दृष्टिकोण और जीवनचर्या संतुलित और यथार्थपरक थे। वह शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति करते हुए, मन को भी कल्पना के पंख बॉधकर मुक्त उड़ान भरने की छूट देता था और कल्पनाओं में विचरण करते हुए वह जीवन के यथार्थ को भी नहीं भूलता था। इस तन और मन के सहज संतुलन ने उसके जीवन को सुखी और संतुष्ट बना रखा था।
विशेष —
- जीवन को सुखी और संतुष्ट बनाए रखने के लिए तन और मन दोनों को संतुलित महत्व प्रदान किया जाना परम आवश्यक है, यह संदेश लेखक ने दिया है।
- भाषा सरल किन्तु प्रतीकात्मक और लाक्षणिक सौन्दर्य युक्त है।
- शैली प्रतीकात्मक एवं भावात्मक है।
'' गेहूॅ सिर धुन रहा है खेतों में, गुलाब रो रहा है बगीचों में — दोनों अपने — अपने पालनकत्र्ताओं के भाग्य पर, दुर्भाग्य पर? चलो पीछे मुड़ो! गेहूॅ और गुलाब में हम फिर एक बार सन्तुलन स्थापित करें?
किन्तु मानव क्या पीछे मुड़ा है, मुड सकता है? यह महायात्री आगे बढ़ता रहा है, आगे बढ़ता रहेगा। और क्या नवीन सन्तुलन चिरस्थाई हो सकेगा?
क्या इतिहास फिर दुहराकर नहीं रहेगा?
नहीं, मानव को पीछे मोड़ने की चेष्टा न करो। अब गुलाब और गेहूॅ में फिर सन्तुलन आने की चेष्टा में सिर खपाने की आवश्यकता नहीं।
अब गुलाब गेहूॅ पर विजय प्राप्त करे। गेहॅू पर गुलाब की बिजय — चिर विजय। अब नए मानव की यह नई आकांक्षा हो।''
सन्दर्भ — श्री रामवृक्ष बेनीपुरी की लेखनी से प्रसूत 'गेहूॅ और गुलाब' शीर्षक निबन्ध से उपर्युक्त अंश यहॉ उद्धृत है।
प्रसंग — उक्त गद्यांश में लेखक ने यहॉ पर समाज में व्याप्त वर्ग — संघर्ष और श्रमिक तथा बुद्धिजीवियों की दुर्दशा का सुन्दर चित्रण करते हुए इस स्थिति से मुक्त होने का उपाय भी बताने की चेष्टा की है।
व्याख्या — शारीरिक तथा मानसिक आवश्यकताओं में व्याप्त असंतुलन का कुपरिणाम आज सारा मानव — समाज भोग रहा है। 'गेहॅू' अर्थात् भौतिक सुख — सुविधा की वस्तुओं के उत्पादक उत्पीडन और शोषण के शिकार हो रहे हैं तथा गुलाब अर्थात् सांस्कृतिक और बौद्धिक सम्पदा के संरक्षक विलास की गन्दगी में डूबे हुए हैं। आज खेत और वाटिकाओं दोनों ही के पालनकर्ता अपने — अपने दुर्भाग्य को भोग रहे है। इस दयनीय स्थिति से मुक्ति पाने का उपाय, शारीरिक और मानसिक आवश्यकताओं में पुन: संतुलन स्थापित करना नहीं हो सकता। मानव — समाज का इतिहास रहा है कि एक बार त्यागी गई परम्पराओं को वह दोबारा स्वीकार नहीं कर पाता। उसके लिए पीछे मुडना सम्भव नहीं है। इसीलिए पुन: संतुलन स्थापित करने की बात सोचना व्यर्थ है। मानव — सभ्यता आगे बढ़ती रही है और आगे ही बढेगी। यदि संतुलन पुन: स्थापित कर भी दिया जाए तो क्या विश्वास है कि वह फिर नहीं टूटेगा? अत: गेहूॅ और गुलाब के बीच संतुलन पर परिश्रम करना व्यर्थ है। अब तो शारीरिक आवश्यकताओं पर मानसिक आवश्यकताओं को प्रमुखता देने की आवश्यकता है। आर्थिक और भौतिक प्रगति की तुलना में सांस्कृतिक प्रगति की प्रतिष्ठा करनी होगी। आज के मनुष्य को गुलाब की 'चिर — विजय' को लक्ष्य बनाकर चलना होगा। तभी वह सुखी रह सकेगा।
विशेष —
- लेखक ने गेहूॅ के स्थान पर गुलाब को स्थाई महत्ता प्रदान करने का मौलिक सुझाव प्रस्तुत किया है।
- एक सुखी और शान्तिमय विश्व की स्थापना के लिए सांस्कृतिक पुनरूत्थान का संदेश दिया गया है।
- भाषा सरल किन्तु सशक्त है।
- शैली भावात्मक, विचारात्मक एवं नाटकीय है।
''गेहूॅ की दुनिया खत्म होने जा रही है — वह स्थूल दुनिया, जो आर्थिक और राजनीतिक रूप से हम सब पर छाई हुई है! जो आर्थिक रूप में रक्त पीती रही है, राजनीतिक रूप में रक्त की धार बहाती रही है। अब वह दुनिया आने वाली है, जिसे हम गुलाब की दुनिया कहेंगे! गुलाब की दुनिया — मानव का संसार — सांस्कृतिक जगत्। अहा! कैसा वह शुभ दिन होगा, जब हम स्थूल शारीरिक आवश्यकताओं की जंजीर तोड़कर सूक्ष्म मानव — जगत का नया लोक बसाएॅगे।''
सन्दर्भ — प्रस्तुत गद्यांश श्री रामवृक्ष बेनीपुरी द्वारा लिखित 'गेहूॅ बनाम गुलाब' नामक निबन्ध से उद्धृत है।
प्रसंग — लेखक ने यहॉ एक नये संसार की मनोहर कल्पना व्यक्त की है। शारीरिक आवश्यकताओं से मुक्त केवल मानसिक सुरूचियों और सुदृश्यों से अभिराम, एक नया जगत् बनने जा रहा है, यह आशा यहॉ व्यक्त है।
व्याख्या — लेखक को विश्वास हे कि शीघ्र ही मनुष्य भौतिक सुख — साधनों की ललक को त्याग देगा और एक नया मनोजगत् निर्मित करेगा। आज समाज की सारी गतिविधियॉ आर्थिक और राजनीतिक गतिविधियों पर केन्द्रित है। मनुष्य आर्थिक और राजनीतिक दृष्टि से सबल बनने में प्राण — प्रण से लगा हुआ है। इस आर्थिक प्रगति की लालसा ने ही समाज में शोषण और अत्याचारों को जन्म दिया है। राजनीतिक प्रभुत्व की आकांक्षा मनुष्यों को परस्पर लड़ाती रही है। समाज में व्याप्त अशान्ति और अन्याय का मूल कारण भौतिक समृद्धि के ये विविध रूप है।
अब शीघ्र ही मनुष्य एक नए समाज की स्थापना करेगा, जो कि शोषण, अन्याय और रक्तपात से मुक्त होगा — एक सांस्कृतिक परिवेश वाला समाज, जो कि मानसिक सुरूचियों और सुविचारों के नातों से बॅधा होगा, जिसमें चारों ओर आमोद — प्रमोद, सौन्दर्य — सदभाव और मनोरम दृश्य होंगे।
जिस दिन संसार में 'गुलाब' की प्रभुता स्थापित होगी, जिस दिन मनुष्य भौतिक सुख — समृद्धि पाने के पागलपन से मुक्त हो जाएगा, जिस दिन मनुष्य — मनुष्य के बीच सम्बन्धों का आधार शरीर न होकर मन की मन होगा, वह दिन निश्चित रूप से सारा मानव — जाति के लिए परम सौभाग्य का दिन होगा।
शोषण, रक्तपात और उत्पीड़न को जन्म देने वाली भौतिकवादी सभ्यता से पीछे छुडाकर, जब मनुष्य सांस्कृतिक, समृद्धि (कला और सौन्दर्य) का उपासक बन जाएगा, जब समाज से शोषण, संघर्ष और रक्तपात समाप्त हो जाएगा, चारो और गुलाबी दुनिया ही दिखाई देगी।
विशेष —
- लेखक ने मानव — समाज के सांस्कृतिक पुनरूत्थान में विश्वास व्यक्त किया है।
- 'गुलाब की दुनिया' का एक काल्पनिक चित्र प्रस्तुत किया गया है।
- भौतिकवादी विचारधारा और जीवन — शैली के दुष्परिणामों को रेखांकित किया गया है।
- भाषा और शैली विषय और भावों के अनुरूप है।
0 comments:
एक टिप्पणी भेजें