वृक्षों का महत्व
रूपरेखा
(1) प्रस्तावना (2) वनों का महत्व (3) वनों की उपयोगिता (4) वन संरक्षण की आवश्यकता (5) वन महोत्सव कार्यक्रम (6) उपसंहार"एक उगता हुआ वृक्ष राष्ट्र की प्रगति का प्रतीक है।"
प्रस्तावना -
मानव - सभ्यता एवं संस्कृति का उदय एवं विकास वन्य प्रदेशों में ही हुआ था, इस बात से सभी लोग भली - भाँँति परिचित हैं। वेदों जैस प्राचीनतम उपलब्ध साहित्य सघन वनों में स्थापित आश्रमों में ही रचा गया, यह भी एक सर्वज्ञात तथ्य है। वन प्रकृति का सजीव साकार स्वरूप प्रकट करते हैं एवं मानव - जीवन का भी आदि स्त्रोत एवं मूल है। प्राणी मात्र के पालन - पोषण के उपयोगी तत्वों के भी स्त्रोत वन ही है ऐसा बड़े गर्व एवं गौरव के साथ कहा व सुना जाता है, अतः वन उगाने व उगे वनों का हर प्रकार से संरक्षण करने की महती आवश्यकता है।
वनों का महत्व -
प्रकृति एवं मानव - सृष्टि के संतुलन का मूल आधार वन ही हैंं। ये तरह - तरह के फल - फूलों वनस्पतियों, औषधियों, जड़ी - बूटियों की प्राप्ति का स्थल तो हैंं ही वरन् धरती पर जो प्राण वायु का संचार हो रहा है उसके समग्र स्त्रोत भी वन ही है। ये धरती एवं पहाड़ों का क्षरण रोकते हैं। नदियों को बहाव और गतिशीलता देते हैं। बादलों एवं वर्षा का कारण बनते हैं। विभिन्न पशु - पक्षियों की उत्पत्ति, निवास एवं आश्रयस्थल हैं। छाया के मूल स्त्रोत हैं तथा इमारती लकड़ी के भण्डार हैं। मनुष्य के ईंधन की भी पूर्ति काफी हद तक करते हैं। अनेक दुर्लभ पशु - पक्षियों एवं कीटों आदि की जातियाँँ - प्रजातियाँँ आज भी वनो की सघनता में पायी जाती हैं।
वनों की उपयोगिता -
वनों की उपयोगिता सर्वकालिक है अर्थात वनों की आवश्यकता व उपयोगिता आरम्भ से आज तक बनी ही रही है और आगे भी बनी रहेगी, लेकिन विडम्बना यह है कि अपने आप को शिक्षित, ज्ञानी - विज्ञानी कहते हुए भी आज हम लगातार वनों को काट रहे हैं और इस प्रकार धरती का, सम्पूर्ण मानवता का संतुलन बिगाड़कर सभी कुछ बर्बाद करके रख देना चाहते हैं। वनो से मिलने वाले सर्वकालिक लाभों से खुद वंचित होकर अगली पीढ़ी को बर्बाद होते देखना चाहते हैं। वन बने रहें, तभी धरती पर उचित मात्रा में वर्षा होगी, नदियों की धारा प्रभावित होगी। सूखा, बाढ़ एवं भूकंप जैसी प्राकृतिक आपदाओं से रक्षा होती रहेगी। आवश्यक प्राणवायु, प्राण रक्षक औषधीयाँ - वनस्पतियाँँ आदि निरन्तर प्राप्त होती रहेंगी।
यदि हमने वनों का विनाश न रोका तो इस सुंदर और मनोरम मानवता का अन्त हो जायेगा। स्पष्ट है कि वन रहेंगे तो ही हम रहेंगे।
वन संरक्षण की आवश्यकता -
चूँकि हम वनों के महत्व से भली-भांति परिचित हो चुके हैं अतः उनकी सर्वकालिक परम आवश्यकता है, इसलिए हर प्रकार से उनका संरक्षण होते रहना भी परम आवश्यक है। केवल संरक्षण ही नहीं, क्योंकि हम उनको अधिक या कम काटकर उनका उपयोग करने को भी बाध्य हैं। अतः उनका रोपण करते रहना भी उतना ही महत्वपूर्ण है। प्रकृति ने जहां जैसी मिट्टी है, जहां की जैसी आवश्यकता है, वहाँँ वैसे ही वन लगा रखे हैं। हमें भी इन्हीं बातों का ध्यान रखकर ही नव वृक्षारोपण एवं उनकी देखभाल करते रहना है। ताकि हमारी धरती तथा हमारे जीवन का संतुलन एवं शोभा बनी रहे। हमारी वे सभी आवश्यकताएँँ युगों तक पूरी होती रहे जिनका आधार वन है।
वन महोत्सव कार्यक्रम -
वनों के महत्व को देखते हुए सन् 1950 में अधिकाधिक वृक्ष लगाओ जन आंदोलन शुरू किया गया। इसमें जनता का अधिकाधिक सहयोग प्राप्त करने के लिए इसे "वनमहोत्सव" का रूप दिया गया। वनमहोत्सव प्रतिवर्ष 1 जुलाई से 7 जुलाई तक मनाया जाता है। वन महोत्सव का उद्देश्य जनसाधारण को वृक्षारोपण की प्रेरणा देना है। वृक्षारोपण के साथ-साथ वृक्षों की रक्षा तथा उनकी उचित देखभाल के लिए जनता में जागरूकता पैदा करना भी इसका मुख्य उद्देश्य है जिससे हम खोती हुई प्राकृतिक विरासत को पुनः पाकर उसे बनाए रख सकें। विद्यालयों में भी प्रतिवर्ष वन - महोत्सव बड़े ही उत्साह एवं उल्लासपूर्वक मनाया जाता है।
उपसंहार -
इस पूरे विश्लेषण से यह स्पष्ट है कि वनों का संरक्षण एवं संवर्धन कितना आवश्यक है; कितना महत्वपूर्ण एवं मानव सृष्टि के लिए कितना उपयोगी है या फिर हो सकता है। लोग लालच में पड़कर अभी तक वनों को काटकर जितनी हानि पहुँँचा चुके हैं, उसकी जितनी जल्दी उसकी क्षतिपूर्ति कर दी जाय, उतना ही संपूर्ण प्राणियों के हित में रहेगा। हमको सदैव याद रखना होगा कि वृक्षों का संरक्षण एवं संवर्धन हमारा परम पावन कर्तव्य है।