जीवन परिचय —
श्री जयशंकर प्रसाद का जन्म सन् 1889 में काशी के एक सम्पन्न वैश्य परिवार में हुआ था। प्रसादजी के पिता और पितामह दोनों ही साहित्य — प्रेमी व्यक्ति थे। घर के साहित्यिक वातावरण का प्रसादजी पर बाल्यावास्था से ही प्रभाव पड़ा। दुर्भाग्य से अल्पायु में ही आप पर अनेक दायित्व आ पड़े। विद्यालय की शिक्षा से वंचित होने पर आपने घर पर ही रहकर अनेक भाषाएॅ सीखी और ज्ञानवद्र्धन किया। अत्यधिक श्रम तथा जीवन के अन्तिम दिनों में राजयक्ष्मा से पीड़ित रहने के कारण 14 नवम्बर, सन् 1937 ई. में आपका निधन हो गया।
रचनाएॅ —
आपकी प्रमुख काव्य रचनाएॅ हैं — कामायनी, आसूॅ, चित्राधार, लहर, झरना आदि। आपके प्रसिद्ध नौटक हैं — चन्द्रगुप्त, ध्रुवस्वामिनी, स्कन्दगुप्त, एक घूॅट, अजातशत्रु आदि। कंकाल और तितली आपके उपन्यास है। प्रतिध्वनि, छाया, आकाशदीप, आॅधी, इन्द्रजाल आदि आपके कहानी — संग्रह है। 'काव्य और कला' आपका निबन्ध — संग्रह है।
भावपक्ष —
प्रेम और सौन्दर्य प्रसादजी के काव्य के प्रमुख विषय है। आपने अपनी रचनाओं में भारतीय संस्कृति और इतिहास के गौरवमय पृष्ठों को अवतरित किया। विश्व—बंधुत्व की भावना और मानव — कल्याण की कामना आपके काव्य में सर्वत्र मुखारित हुई।
भाषा शैली —
प्रसादजी ने अपने काव्य में परिष्कृत, प्रवाहमयी, संस्कृतनिष्ठ भाषा का प्रयोग किया है। विषय और भाव के अनुकूल विविध शैलियों को अपनाया है। उनके अलंकार सर्वत्र रस या ीााव का चित्र—सा अंकित कर देते है। आपने विविध छन्दों के माध्यम से काव्य को सफल अभिव्यक्ति प्रदान की है।
साहित्य में स्थान —
प्रसाद जी भाव और शिल्प दोनों दृष्टियों से हिन्दी के युग— प्रवर्तक कवि के रूप में विख्यात है। आपने छायावाद का सूत्रपात किया और उसे समृद्ध बनाया। डॉ. राजेश्वर प्रसाद चतुर्वेदी के अनुसार, ''वे छायावादी काव्यि के जनक और पोषक होने के साथ ही आधुनिक काव्यधारा का गौरवमय प्रतिनिधित्व करते हैं। प्रसादजी ने जहॉ एक और रीतिकालीन अफीमची श्रृंगारिकता से कविता कामिनी को निकाला, वही उन्होंने द्धिवेदीयुगीन इतिवृतात्मकता के नीरस एवं शुष्क रेगिस्तान में, उसके सूखे हुए कण्ठ को मधुर रस—धार प्रदान की। कामायनी के शिल्पी के रूप में प्रसादजी न केवल हिन्दी साहित्य की, अपितु विश्व—साहित्य की विभूति है। /