गद्य — खण्ड
पाठ — 2
महापुरूष श्री कृष्ण (वासुदेव शरण अग्रवाल)
सन्दर्भ एवम् प्रसंग सहित महत्वपूर्ण व्याख्याएॅ —
'' भिन्न — भिन्न वस्तु को नापने के लिए भिन्न — भिन्न परिणामों का प्रयोग किया जाता है । दूरी को नापने के लिए और नाप है, काल के लिए और है तथा बोझ के लिए और है। इसी प्रकार मानवीय पूर्णताको प्रकट करने के लिए कला की नाप है। सोलह कलाओं से चन्द्रमा का स्वरूप सम्पूर्ण होता है। मानवीय आत्मा का पूर्णतम विकास भी सोलह कलाओं के द्वारा प्रकट किया जाता है। कृष्ण में सोलह कलाओं की अभिव्यक्ति थी, अर्थात् मनुष्य का मस्तिष्क मानवीय विकास का जो 'पूर्णतम आदर्श बन सकता है, वह हमें कृष्ण में मिलता है।'
सन्दर्भ — प्रस्तुत गद्यांश डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल द्वारा लिखित 'महापुरूष श्रीकृष्ण' शीर्षक पाठ से अवतरित किया गया है।
प्रसंग — इस गद्याांश में विद्धान लेखक ने श्रीकृष्णजी के बहु आयामी व्यक्तित्व का निरूपण करते हुए कहा है —
व्याख्या — पदार्थ की भिन्न — भिन्न अवस्थाएॅ होती है। इन भिन्न — भिन्न अवस्थाओं को मापने के लिए परिमाण भी अलग होते हैं। दूरी को मापने के लिए जहॉ हम इंच, मीटर, किलोमीटर आदि का उपयोग करते हैं, वहीं काल या समय को मापने के लिए सेकण्ड, मिनट, घण्टा, दिन—रात, सप्ताह, महीने, वर्ष आदि का उपयोग करते हैं और बोझ के लिए हल्का, भारी, अधिक भारी आदि का उपयोग करते है। इसी प्रकार मानवीय पूर्णता को व्यक्त करने के लिए कला का माप है। चन्द्रमा के स्वरूप को सोलह कलाओं में मापा गया है। इसमें उसका पूर्ण स्वरूप प्रकट होता है। मानवीय आत्मा काा पूर्णतम विकास भी इन सोलह कलाओं के माध्यम से प्रकट किया जाता है। विद्धानों की राय में श्रीकृष्ण में इन सोलह कलाओं की अभिव्यक्ति थी। तात्पर्य यह है कि एक माहापुरूष में जितनी भी चारित्रिक विशेषताएॅ होनी चाहिए, वे श्रीकृष्ण में निहित थीं। सच्चे अर्थो में मनुष्य का मस्तिष्क मानवीय विकास का जो पूर्णतम आदर्श हो सकता है, वह श्रीकृष्ण के चरित्र में स्पष्ट देखा जा सकता है।
विशेष — भाषा भावानुरूप व प्रभावोत्पादक।
''कृष्ण भारतवर्ष के लिए एक अमूल्य निधि हैं, वे हमारी संस्कृति के सर्वश्रेष्ठ प्रतिनिधि हैं। जिस प्रकार पूर्व और पश्चिम के समुद्रों के बीच प्रदेश को व्याप्त करके गिरिराज हिमालय पृथ्वी के मानदण्ड की तरह स्थित है, उसी प्रकार ब्रह्म धर्म और छात्र धर्म इन दो मर्यादाओं के बीच की उच्चता को व्याप्त करके श्रीकृष्ण — चरित्र पूर्ण मानवीय विकास के मानदण्ड की तरह स्थित है।''
सन्दर्भ — उपर्युक्त गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक में संकलित 'महापुरूष श्रीकृष्ण' शीर्षक पाठ से उदधृत किया गया है। इसके लेखक डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल हैं।
प्रसंग — उक्त गद्यांश में लेखक ने श्रीकृष्ण को भारतीय संसकृति के सर्वश्रेष्ठ प्रतिनिधि के रूप में प्रसथापित करते हुए लिखा है —
व्याख्या — श्रीकृष्ण हिन्दु धर्म के अवतारों में से एक महापुरूष के रूप में पूज्य हैं। वे भारतवर्ष के लिए एक अमूल्य निधि है। यों कहिए कि वे हमारी भारतीय संस्कृति के सर्वश्रेष्ठ प्रतिनिधि है। जिस प्रकार पूर्व और पश्चिम के समुद्रों के बीच हिमालय पर्वत पृथ्वी के मानदण्ड के रूप में खड़ा हुआ है, उसी प्रकार ब्रह्म धर्म या सनातन धर्म और छात्र धर्म इन दो मर्यादाओं के बीच अपने उच्चादर्शो को व्याप्त करके श्रीकृष्ण का चरित्र मानवीय विकास के मानदण्ड की तरह स्थित है। संक्षेप में, श्रीकृष्ण का चरित्र ब्रह्मधर्म और छात्र धर्म दोनों की शिक्षा देता है। एक ओर जहॉ श्रीकृष्ण योगीराज हैं, वहॉ वे कर्मवीर भी है।
विशेष — विवेचनात्मक शैली का प्रयोग।
0 comments:
एक टिप्पणी भेजें