पद्य — भारती
पाठ — 4 नीति — धारा
गिरिधर की कुंडलियॉ (गिरिधर)
पद्यांशो की सन्दर्भ एवं प्रसंग सहित व्याख्या —
बीती ताही बिसारी दे, आगे की सुधि लेई।
जो बनि आवै सहज में, ताही में चित्त देई। ।
ताही में चित्त देइ, बात जोई बनि आवै।
दुर्जन हॅसे न कोइ, चित्त में खता न पावै।।
कह गिरिधर कविराय, यहै करू मन — परतीती।
आगे की सुख समुझि हो, बीती सो बीती।।
संदर्भ — प्रस्तुत छंद 'गिरिधर की कुंडलियॉ' से लिया गया है, इसके कवि गिरिधर है।
प्रसंग — कवि यहॉ यह कहता है कि हमें अतीत को भुलाकर आगे की सोचना चाहिए।
व्याख्या — कवि कहता हे कि अतीत को भुलाकर आगे की सोचना चाहिए। जो वर्तमान में है, उसमें मन लगाना चाहिए। जो वर्तमान में मन लगाता है, उसकी बात बन जाती है। उस पर न तो कोई हॅसता है, न ही उसे बात बिगडने का दु:ख होता हे। गिरिधर कवि कहते है कि मन में यह बात बैठा लीजिए कि जो बीत गया है, उसे भूलना है और वर्तमान में ध्यान लगाना है।
साई अपने चित्त की, भूलि न कहिए कोई।
तब लग मन में राखिए, जब लग कारण होई।।
जब लग कारण होइ, भूलि कबहॅू नहि कहिए।।
दुर्जन हॅसे न कोई आप सियरे हवै रहिए। ।
कह गिरिधर कविराय, बात चतुरन की ताई।
करतूती कहि देत, आप कहिए नहिं साई।।
संदर्भ — प्रस्तुत छंद 'गिरिधर की कुंडलियॉ' से लिया गया है, इसके कवि गिरिधर है।
प्रसंग — कवि कहता हे कि अपने मन की बात किसी से नही कहना चाहिए।
व्याख्या — व्यक्ति को अपने मन की बात भूलकर भी तब तक किसी से नही कहना चाहिए, जब तक अपना कार्य पूर्ण नहीं हो जाता। ऐसा करने से दुर्जन व्यक्ति् को तुम पर हॅसने का मौका नहीं मिलेगा और आपका काम भी बन जाएगा। आपका कार्य ही सब कह देगा, मुॅह से कहने की कोई आवश्यकता नहीं।
बिना विचारे जो करे, सो पीछे पछिताय।
काम बिगारै आपनो, जग में होत हॅसाय।।
जग में होत हॅसाय, चित्त में चैन न पावै।
खान — पान सनमान, राग रंग मनहिं न भावै।।
कह गिरिधर कविराय, दु:ख कछु टरत न टारे।
खटकत है जिय माहिं, कियो जो बिना विचारे।।
संदर्भ — प्रस्तुत छंद 'गिरिधर की कुंडलियॉ' से लिया गया है, इसके कवि गिरिधर है।
प्रसंग — कवि कहता हे कि बिना विचारे काम करना व्यर्थ है।
व्याख्या — जो व्यक्ति बिना विचारे काम करता है, उसे अंत में पश्चाताप करना पड़ता है। जग में हॅसी अलग उड़ती है। साथ ही चित्त में चैन नहीं मिलता है। खान — पान रागरंग मन को नहीं भाते है। दु:ख टालने से भी टलता नहीं है, हमेशा दिल में खटकता रहता है। इसलिए बिना विचारें काम करना गलत है।
दौलत पाय न कीजिए सपने में अभिमान।
चंचल जल दिन चारि को, ठाऊॅ न रहत निदान।।
ठाऊॅ न रहत निदान, जियत जग में जस लीजै।
मीठे वचन सुनाय, विनय सबही की कीजै।।
कह गिरिधर कविराय, अरे यह सब दौलत।
पाहुन निसि दिन चारि, रहत सबही के दौलत।।
संदर्भ — प्रस्तुत छंद 'गिरिधर की कुंडलियॉ' से लिया गया है, इसके कवि गिरिधर है।
प्रसंग — कवि के अनुसार व्यक्ति को दौलत का घमंड नही करना चाहिएं ।
व्याख्या — कवि का कहना है कि हमें कभी भी दौलत का घमंड नहीं करना चाहिए। यह चंचल जल के समान है जो कभी एक जगह नही रहती है। हमेशा मीठे वचन बोलिए, विनम्र रहिए। दौलत मेहमान के समान है, चार दिन की मेहमान है। यह आज यहॉ तो कल वहॉ।
गुन के गाहक सहस नर, बिनु गुन लहै न कोय।
जैसे कागा कोकिला, शब्द सुनै सब कोय।।
शब्द सुनै सब कोय, कोकिला सबै सुहावन।
दोऊ को इक रंग, काग सब भए अपावन।
कह गिािसा कविरय, सुनो हो ठाकुर मन के।
बिनु गुन लहै न कोय, सहस नर ग्राहक गुन के।।
संदर्भ — प्रस्तुत छंद 'गिरिधर की कुंडलियॉ' से लिया गया है, इसके कवि गिरिधर है।
प्रसंग — गुणों के महत्व का प्रतिपादन किया गया है।
व्याख्या — कवि कहता है कि गुण के ग्राहक सभी है। जैसे — कौआ और कोयल के शब्द कभी सुनते हैं। दोनों का रंगरूप समान है, किन्तु कौए की कर्कश आवाज सभी को बुरी लगती है, वहीं कोयल की मधुर आवाज सभी का मन मोह लेती है। सभी व्यक्ति गुणवान को महत्व देते हैं, गुण के बिना कुछ नहीं है कहीं कोई सम्मान नहीं है।
नीति — अष्टक (भारतेन्दु हरिश्चन्द्र)
पद्यांशो की सन्दर्भ एवं प्रसंग सहित व्याख्या —
मान्य योग्य नहिं होत, कोऊ कोरो पद पाए।
मान्य योग्य नर ते, जे केवल परहित जाए।।
संदर्भ — प्रस्तुत छंद 'भारतेन्दु हरिश्चंंद्र' द्वारा रचित 'नीति — अष्टक' से लिया गया है।
प्रसंग — प्रस्तुत छंद में कवि ने बड़े बनने के लिए परिहित करने के लिए प्रेरित किया है।
व्याख्या — कवि कहता है कि कोई व्यक्ति केवल बड़ा पद पाकर माननीय नहीं हो जाता। केवल वही व्यक्ति् माननीय होता है, जो दूसरों की भलाई मे लगा रहता है।
बिना एक जिय के भए, चलिहैं अब नहिं काम।
तासों कोरो ज्ञान तजि, उठहुॅ छोड़ि बिसराम।।
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