पाठ — 3 पद्य — भारती
प्रेम और सौन्दर्य (बिहारी)
पद्यांशों की सन्दर्भ एवं प्रसंग सहित व्याख्या
सोहत औढ़े पीतु पटु — स्याम सलोनैं गात।
मनौं नीलमनि — सेल पर, आतप परयौ प्रभात।।
सखि सोहत गोपाल कै, उर गुंजनु की माल।
बाहिर लसत मनौ पिये, दावानल की ज्वाल।
संदर्भ — प्रस्तुत पद्य 'बिहारी' द्वारा रचित 'सौन्दर्य — बोध' से लिया गया है।
प्रसंग — इस पद्य में श्री कृष्ण के सौन्दर्य का वर्णन किया गया है।
व्याख्या — श्याम — सलोने श्रीकृष्ण ने पीले रंग के वस्त्र पहने हुए है। उन्हें देखकर ऐसा लगता है मानों नीले रंग की चट्टान पर सूर्य का प्रकाश पड़ रहा है।
सखि गोपाल के हदय पर पड़ी गुंजन की माला ऐसी सुशोभित हो रही है, मानों उन्होंने जंगल की ज्वाला को पी रखा है।
लिखन बैठि जाकी सबी, गहि गहि गरब गरूर।
भए न केते जगत के, चतुर चितेरे कूर।।
संदर्भ — प्रस्तुत पद्य 'बिहारी' द्वारा रचित 'सौन्दर्य — बोध' से लिया गया है।
प्रसंग — गोपाल के सौन्दर्य का वर्णन किया गया है।
व्याख्या — जगत् के चतुर विद्वान कवि, जब श्री कृष्ण के सौन्दर्य का वर्णन करने के लिए बड़े गर्व से लिखने बैठ गए, तो उनसे भी कुछ कहते न बन सका।
मकराकृति गोपाल कै, सोहत कुंडल कान।
धस्यौ मनौ हिय गढ समरू ड्योढ़ी लसत निसान।।
संदर्भ — प्रस्तुत पद्य 'बिहारी' द्वारा रचित 'सौन्दर्य — बोध' से लिया गया है।
प्रसंग — गोपाल के रूप का वर्णन किया गया है।
व्याख्या — गोपाल के कानों में मकराकृति के कुंडल सुशोभित हो रहे हैं, मानों हदय रूपी गढ़ में समेरू धॅसा हो और ड्योढ़ी पर निशान लगा हो।
नीको लसत लिलार पर, टीको जरित जराय।
छबिहिं बढ़ावत रवि मनौ, ससि मंडल में आय।।
संदर्भ — प्रस्तुत पद्य 'बिहारी' द्वारा रचित 'सौन्दर्य — बोध' से लिया गया है।
प्रसंग — बिन्दी का महत्व बताया गया है।
व्याख्या — नायिका के मुख पर बिन्दी ऐसी सुशोभित हो रही है, मानों शशिमंडल की शोभा बढ़ाने हेतु सूर्य उसमें प्रवेश कर गया है।
झीनैं पट मैं झिलमिली, झलकति ओप अपार।
सुर तरू की मनु सिंधु में, लसति सपल्लव डार।।
संदर्भ — प्रस्तुत पद्य 'बिहारी' द्वारा रचित 'सौन्दर्य — बोध' से लिया गया है।
प्रसंग — नायिका के सौन्दर्य का वर्णन किया गया है।
व्याख्या — नायिका ने जो झीना — सा झिलमिल वस्त्र पहना है, उसमें से उसका रूप झलक रहा है। मानों समुद्र में सुरतरू की पल्लव फैल गई है, जो सुंदर दिखाई पड़ रही है।
त्यौं — त्यौं प्यासेई रहत, ज्यौ — ज्यौ पियत अघाई।
सगुन सलोने रूप की, जुन चख तृषा बुझाई।।
संदर्भ — प्रस्तुत पद्य 'बिहारी' द्वारा रचित 'सौन्दर्य — बोध' से लिया गया है।
प्रसंग — कृष्ण की भक्ति का वर्णन किया गया है।
व्याख्या — श्री कृष्ण के रंग में जितना डूबते हैं, उतनी ही प्यास बढ़ती जाती है। जितनी उनकी भक्ति का रस पीते हैं, उतनी ही तृष्णा बुझती नहीं है।
तो पर वारौ उरबसौ, सुनि राधिके सुजान।
तू मोहन कै उर बसी, है उरबशी समान।।
संदर्भ — प्रस्तुत पद्य 'बिहारी' द्वारा रचित 'सौन्दर्य — बोध' से लिया गया है।
प्रसंग — राधा — कृष्ण के प्रेम का वर्णन किया गया है।
व्याख्या — हे राधे! तुम पर मैं उर्वशी को न्यौछावर करता हूॅ। तुम मोहन के हदय में जा बसी हो। तुम उर्वशी के समान हो।
फिरि — फिरि चित उत ही रहतु, टुटी लाज की लाव
अंग — अंग छवि झौर में, भयो भौर की नाव।।
संदर्भ — प्रस्तुत पद्य 'बिहारी' द्वारा रचित 'सौन्दर्य — बोध' से लिया गया है।
प्रसंग — इसमें श्रीकृष्ण की भक्ति का वर्णन किया गया है।
व्याख्या — हे सखि! मैं श्रीकृष्ण के प्रेम में इस तरह दीवानी हो गई हॅू कि मेरा मन उड़ता — फिरता है। मैंने लाज — शर्म सब छोड़ दी है। मेरा अंग — अंग प्रेम से आसक्त हो गया है।
जहॉ — जहॉ ठाढ़ौ लख्यौ, स्याम सुभग सिरमौरू।
उनहॅू बिन छिन गहि रहतु, दृगनु अजौं वह ठौरू।।
श्रद्धा (कामायनी) (जयशंकर प्रसाद)
''कौन तु? संसुति — जलनिधि तीर तरंगो से फेंकी मणि एक,
कर रहे निर्जन का चुपचाप प्रभा की धारा से अभिषेक?
मधुर विश्रांत और एकांत — जगत का सुलझा हुआ रहस्य,
एक करूणामय सुंदर मौन और चंचल मन का आलस्य।''
सुना यह मनु ने मधु गुंजार मधुकरी का — सा जब सानंद,
किए मुख नीचा कमल समान प्रथम कवि का ज्यों सुंदर छंद,
एि झिटका सा लगा सहर्ष, निरखने लगे लुटे से कौन,
गा रहा यह सुंदर संगीत? कुतूहल रह न सका फिर मौन।
और देखा वह सुंदर दृश्य नयन का इंद्रजाल अभिराम,
कुसुम वैभव में लता समान चंद्रिका से लिपटा घनश्याम।
हदय की अनुकृति बाह्य उदार एक लम्बी काया उन्मुक्त,
मधु पवन — क्रीडित ज्यों शिशुसाल, सुशोभित हो सौरभ — संयुक्त।
मसृण, गांधार देश के नील रोम वाले मेघों के चर्म,
ढॅक हरे थे उसका वपुकांत बन रहा था वह कोमल वर्म।
नील परिधान बीच सुकुमार खुल रहा मृदुल अधखुला अंग,
खिला हो ज्यों बिजली का फूल मेघवन बीच गुलाबी रंग।
आह, वह मुख! पश्चिम के व्योम बीच जब घिरते हो घनश्याम,
अरूण रवि मंडल उनको भेद दिखाई देता हो छविधाम।
संदर्भ — प्रस्तुत पद्यांश जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित श्रद्धा सर्ग से लिया गया है।
या कि, नव इंद्रनील लघु श्रृंग फोड़ कर धधक रही हो कांत,
एक लघु ज्वालामुखी अचेत माधवी रजनी में अश्रांत।
घिर रहे थे घुॅघराले बाल अंस अवलंबित मुख के पास,
नील घनशावक से सुकुमार सुधा भरने को विधु के पास।
और उस मुख पर वह मुस्कान! रक्त किसलय पर ले विश्राम,
अरूण की एक किरण अम्लान अधिक अलसाई हो अभिराम।
संदर्भ — प्रस्तुत पद्यांश जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित श्रद्धा सर्ग से लिया गया है।
नित्य यौवन छवि से ही दीप्त विश्व की करूण कामना मूर्ति,
स्पर्श के आकर्षण से पूर्ण प्रकट करती ज्यों जड़ में स्फूर्ति।
उषा की पहली लेखाकांत, माधुरी से भींगी भर मोद,
मद भरी जैसे उठे सलज्ज भोर की तारक — द्युति की गोद।
कुसुम — कानन अंचल में मंद पवन प्रेरित सौरभ साकार,
रचित — परमाणु — पराग शरीर, खड़ा हो, ले मधु का आधार।
और, पड़ती हो उस पर शुभ नवल मधुराका मन की साध,
हॅसी का मदविह्वल प्रतिबिंब मधुरिमा खेला सदृश अबाध।
संदर्भ — प्रस्तुत पद्यांश जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित श्रद्धा सर्ग से लिया गया है।
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