पाठ — 8 मातृभूमि का मान (हरिकृ​ष्ण प्रेमी) गद्य — भारती

पाठ — 8 
मातृभूमि का मान (हरिकृ​ष्ण प्रेमी) गद्य — भारती 
सन्दर्भ एवं प्रसंग सहित व्याख्याएॅ 

''प्रेम का अनुशासन मानने को हाड़ा — वंश सदा तैयार है, शक्ति का नहीं। मेवाड़ के महाराणा को यदि अपने ही जाति — भाइयों पर अपनी तलवार आजमाने की इच्छा हुई है, तो उससे उन्हें कोई नहीं रोक सकता है। बूॅदी स्वतन्त्र राज्य है और स्वतन्त्र रहकर वह महाराणाओं का आदर करता रह सकता है। अधीन होकर किसी की सेवा करना वह पसन्द नही करता।''

सन्दर्भ — प्रस्तुत गद्यांश सुप्रसिद्ध नाटककार श्री हरिकृष्ण प्रेमी द्वारा लिखित 'मातृभूमि का मान' शीर्षक एकांकी नाटक से अवतरित है। 

प्रसंग — इस गद्यांश में बताया गया है कि मेवाड नरेश महाराणा लाखा ने सेनापति अभयसिंह के माध्यम से बूॅदी के राव हेमू के पास प्रस्ताव भेजा कि वह मेवाड की अधीनता स्वीकार कर ले। इसके प्रत्युत्तर में राव हेमू ने स्पष्ट शब्दों में कह भिजवाया — 

व्याख्या — स्वाभिमानी राजपूत को अपनी ताकत पर नाज होता है। व​ह किसी की अधीनता या बंधन को स्वीकार नहीं करता है। हाड़ा — वंश के लोग प्रेम का अनुशासन मानने के लिए हमेशा तैयार रहते है। वे किसी के ऊपरी दबाव या शक्ति को स्वीकार नहीं करते है। मेवाड के महाराणा लाखा का यदि अपनी ही जाति के लोगों पर अपनी शक्ति का परीक्षण करने की इच्छा हुई है, तो इस कार्य में उन्हें कोई भी बाधा नही डालेगा। बूॅदी हमेशा से स्वतन्त्र राज्य रहा है। भविष्य में भी वह स्वतन्त्र रहना चाहेगा। स्वतन्त्र रहकर ही वह महाराणाओं का आदर कर सकता है। बूॅदी किसी के अधीन रहकर सिकी की सेवा करना पसन्द नहीं करता है।

विशेष — 

  1. यहॉ पर राव हेमू को एक स्वाधीनता प्रेमी और स्वाभिमानी शासक के रूप में चित्रित किया गया है। 
  2. भाषा सरल, सुबोध एवं सशक्त है। 
  3. जीवन में प्रेम के अनुशासन को सर्वोच्च स्थान प्रदान किया गया है। 

''जिस जन्मभूमि की धूल में हम खेलकर बड़े हुए है, उसका अपमान भी कैसे सहन किया जा सकता है? जब कभी मेवाड़ की स्वतंत्रता पर आक्रमण हुआ है, हमारी तलवार ने उनके नमक का बदला दिया है। लेकिन जब मेवाड़ और बूॅदी के मान का प्रश्न आएगा, हम मेवाड की दी हुई तलवारें महाराणा के चरणों में चुपचाप रख कर विदा लेंगे और बूॅदी की ओर से प्राणों की बलि देंगे। आज ऐसा ही अवसर आ पड़ा है।''

सन्दर्भ — प्रस्तुत गद्यावतरण 'मातृभूमि का मान' नामक एकांकी से उद्धृत है। इसके लेखक श्री हरिकृष्ण प्रेमी है। 

व्याख्या — हम हाड़ावंशी अपनी मातृभूमि बूॅदी की रक्षा के ​लिए सदैव प्राणपन से तैयार रहेंगे। हम जिस जन्मभूमि की धूल में खेलकर बड़े हुए है — अपने जीवन का विकास किया है, उसका अपमान हम किसी भी स्थिति में सहन नहीं कर सकते। जब कभी मेवाड़ की स्वतन्त्रता पर किसी ने आक्रमण किया है, हमें गुलाम बनाने की चेष्टा की है, हमने उसका पूरी शक्ति से प्रतिकार किया है और इस प्रकार हमने अपना नमक अदा किया है। जब भी मेवाड़ और बूॅदी के मान का प्रश्न उपस्थित होगा, हम मेवाड़ की दी हुई तलवारें महाराणा के चरणों में शांतिपूर्वक रखकर विदा हो जाएॅगे और बूॅदी की ओर से अपने प्राण तक न्योछावर करने के लिए तत्पर रहेंगे। आज हमारे सामने ऐसा ही परीक्षा  का अवसर आया है, जिसमें हमें अपनी योग्यता, क्षमता, एकता और स्वाभिमान की रक्षा तथा मातृभूमि के प्रति प्रेम का परिचय देना है। 

विशेष — 

  1. मातृभूमि के सम्मान की रक्षा के लिए वीरसिंह सदैव तत्पर है।
  2. भाषा सरल, सुबोध, और ओजपूर्ण है।

''हम युग — युग से एक हैं और एक रहेंगे। आपको यह जानने की आवश्यकता थी कि राजपूतों में न कोई राजा है, न कोई महाराजा। सब देश, जाति और वंश की मान — रक्षा के लिए प्राण देने वाले सैनिक हैं। हमारी तलवार अपने ही स्वजनों पर न उठनी चाहिए। बॅूदी के हाड़ा सुख और दु:ख में चित्तौड के सिसादियाओं के साथ रहे हैं और रहेगे। हम सब राजपूत अग्नि के पुत्र हैं, हम सबके हदय में एक ज्वाला जल रही है। हम कैसे एक — दूसरे से पृथक हो सकते हैं। वीरसिंह के बलिदान ने हमें जन्मभूमि का मान करना सिखाया है।''

सन्दर्भ — प्रस्तुत गद्यांश सुप्रसिद्ध नाटककार श्री हरिकृष्ण प्रेमी द्वारा लिखित 'मातृभूमि का मान' शीर्षक एकांकी नाटक से अवतरित है। 
प्रसंग — बूॅदी के नकली दुर्ग की रक्षा करते हुए वीरसिंह ने अपना बलिदान कर दिया। महाराणा लाखा वीरसिंह के शौर्य और मातृ — भूमि प्रेम से अभिभूत है। वह उसके शव के पास बैठकर पश्चाताप करता है। यह देखकर बूॅदी के राजा राव हेमू महाराणा लाखा को आश्वस्त करते हुए कहते है — 
व्याख्या — महाराणा! हम राजपूत लोग युगों से एक हैं और भविष्य में भी एक होकर रहेंगें। आपको यह मालूम होगा कि राजपूत सब एक हैं। इनमें न कोई राजा है, न कोई महाराजा। न कोई     छोटा है और न कोई बड़ा। सभी राजपूत अपने देश, जाति और वंश के सम्मान की रक्षा के लिए प्राण न्यौछावर करने वाले सैनिक के सम्मान कर्तव्यनिष्ठ हैं। हमारी तलवार स्वजनों पर कभी नहीं उठनी चाहिए। हमें एक — दूसरे का राजपूत भाइयों के साथ रहे हैं और आगे भी साथ रहेंगे। हम सब राजपूत अग्नि — पुत्र है। अग्निकुण्ड से हमारा जन्म हुआ है। हम स​बके हदय में एक ज्वाला — सी जल रही है। हम एक दूसरे से कदापि अलग नहीं हो सकते। वीरसिंह ने बूॅदी दुर्ग की रक्षा करते हुए अपने प्राण त्यागकर हमें जन्मभूमि का मान करना सिखया है। उस ने हमारे समक्ष मातृ — भूमि — प्रेम का आदर्श स्थापित किया है। 

'' नकली बूॅदी भी प्राणों से अधिक प्रिय है। जिस जगह एक भी हाड है, वहॉ बूॅदी का अपमान असानी से नहीं किया जा सकता। आज महाराणा आश्चर्य के साथ देखेगे कि यह खेल केवल खेल ही नहीं रहेगा, यहॉ का चप्पा — चप्पा भूमि सिसादियाओं और हाड़ओं के खून से लाल हो जाएगा।''

सन्दर्भ — प्रस्तुत गद्यांश सुप्रसिद्ध नाटककार श्री हरिकृष्ण प्रेमी द्वारा लिखित 'मातृभूमि का मान' शीर्षक एकांकी नाटक से अवतरित है। 
प्रसंग — उक्त गद्यांश में एकांकीकार ने बूॅदी के राजा राव हेमू के सेनापति वीरसिंह के वीरतापूर्ण कार्यो एवं विचारों को अभिव्यक्ति प्रदान की है। वीरसिंह के साथी नकली दुर्ग की रक्षा करने का सहज रूप में लेते हैं। यह देख वीरसिंह अपने साथियों को दबावपूर्वक कहता है — 
व्याख्या — साथियों! तुम्हें धिक्कार है। बॅूदी का दुर्ग नकली ही क्यों न हो, उसकी रक्षा करना हमारा परम धर्म है। नकली बूॅदी भी हमें प्राणों से अधिक प्रिय हैै। जिस धरती पर एक भी हाड़ा राजपूत जीवित है, वहॉ बूॅदी का अपमान इतनी आसानी से नहीं किया जा सकता। आज महाराणा लाखा आश्चर्य व्यक्त करेंगे कि नकली दुर्ग महज नकली दुर्ग नही है। यह कोई दुर्ग — रक्षा का खेल नही खेला जा रहा है। यहॉ पर चप्पा — चप्पा भूमि पर हमारा अधिकार है। यदि हाड़ा औरृ1सिसोदिया वंश के राजपूतो में आपस में युद्ध होता है, तो यह एक निर्णायक युद्ध होगा, जिससे नकली दुर्ग की धरती खून से लाल हो जाएगी। भारी रक्तपात होगा। इसमें हमें पीछे हटने की जरूरत नही है। 
विशेष — 
  1. यहॉ पर लेखक ने मातृभूमि — प्रेम की अभिव्यंजना की है। 
  2. भाषा में ओज गुण की प्रधानता है। 

''ये सागर से रत्न निकाले। युग — युग से हैं गए सॅभाले। इनसे दुनिया में उजियाला। तोड़ मोतियों की मत माला। ये छाती में छेद कराकर। एक हुए हैं हदय मिलाकर। इनमें व्यर्थ भेद क्यों डाला? तोड़ मोतियों की मत माला।'' 

सन्दर्भ — प्रस्तुत अवतरण 'मातृभूमि का मान' एकांकी नाटक से लिया गया है। इसके लेखक श्री हरिकृष्ण 'प्रेमी' है। 
प्रसंंग — इस अवतरण में नेपथ्य में गान के रूप में और चारणी के माध्यम से लेखक ने सिसोदिया वंश के महाराणा लाखा के प्रतिज्ञा — पालन का वर्णन करते हुए कहा है — 
व्याख्या — सिसोदिया वंश में उत्पन्न राजपूत सूर्यवंशी कहलाते हैं। वे अपनी प्रतिज्ञा के पालन में दृढ़ रहते है। महाराणा लाखा सेनापति अभयसिंह से कहते है कि वे अपनी प्रतिज्ञा का पूर्णत: पालन करेंगे। सिसोदिया वंश में उत्पन्न लोग सागर में से निकाले गए रत्न के समान होते है। इन्हे युगों से सम्भाल कर रखा गया है। ये ऐसे मोती है, जो सारी दुनिया में उजाला करते हैंं। दुनिया इनसे रोशन और आबाद है। ये माला में गुॅथे हुए मोतियों के समान है। इनमें भावात्मक दृष्टि से एकता है। इनकी एकता को कोई तोड़ नही सकता। कोई भी शक्ति मोतियों की इस माला को तोड़ने का प्रयास न करे। ये मोती है, जिनके हदय में छेद हे, फिर भी एकता के सूत्र में बॅधे हुए है। इनमें कोई भेद करने का व्यर्थ प्रयास न करें। इस एकता की माला को तोड़ने का कोई उपक्रम न किया जाए। फिर भी मैं इस जाति में शत्रुता का बीज बोने जा रहा हॅू। 
विशेष — 
  1. गीति तत्व के समायोजन से इस एकांकी में प्रभावोत्पादकता आ गई है। 
     
     
     
     


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