पाठ — 6
शौर्य और देश — प्रेम (पद्य भारती )
वीरों का कैसा हो बसंत? (सुभद्राकुमारी चौहान)
पद्यांशों की सन्दर्भ एवं प्रसंग सहित व्याख्या
वीरों का कैसा हो वसंत?
आ रही हिमालय से पुकार
है उदधि गरजता बार — बार
प्राची, पश्चिम, भू, नभ अपार,
सब पूछ रहे हैं दिग् — दिगंत
वीरो का कैसा हो वसंत?
फूली सरसों ने दिया रंग
मधु लेकर आ पहूॅचा अनंग
बधू — वसुधा, पुलकित अंग — अंग
है वीर देश मे किन्तु कंत
वीरों का कैसा हो वसंत?
संदर्भ — प्रस्तुत काव्यांश 'वीरों का कैसा हो वसंत नामक कविता से लिया गया है। इसकी कवयित्री सुभद्राकुमारी चौहान है।
प्रसंग — प्रस्तुत काव्यांश में कवयित्री ने वीरों के वसंत का वर्णन किया है।
व्याख्या — कवयित्री कहती है कि हिमालय से पुकार आ रही है। विशाल समुद्र बार — बार गरज रहा है। पूर्व — पश्चिम, उत्तर — दक्षिण, धरती आकाश चारों दिशाएॅ यह पूछ रही हैं कि वीरों का वसंत कैसा हो? खेतों में सरसों फूल रही ळै। भौरे मॅडरा रहे है। धरती दुल्हन की तरह सज गयी है। इस वीरभूमि में रहने वाले वीरों का वसंत कैसा होना चाहिए? अर्थात् सभी की यही पुकार है कि वीरता, देशप्रेम की भावना से ओतप्रेत होना चाहिए।
भर रही कोकिला इधर तान,
मारू बाजे पर उधर गान,
है रंग और रण का विधान,
मिलने आये हैं आदि — अंत,
वीरों का कैसा हो वसंत?
गल बॉहे हों या हा — कृपाण,
चल चिन्तन हो, या धनुष — वाण
हो रस — विलास या दलित त्राण,
अब यही समस्या है दुरंत
वीरों का कैसा हो वसंत?
संदर्भ — प्रस्तुत काव्यांश 'वीरों का कैसा हो वसंत नामक कविता से लिया गया है। इसकी कवयित्री सुभद्राकुमारी चौहान है।
प्रसंग — कवयित्री कहती है कि प्रकृति वीरों को जोश और देशप्रेम की भावना से ओतप्रोत कर रही है।
व्याख्या — कवयित्री कहती है कि कोयल की मधुर आवाज सुनाई पड़ रही है। होली के ढोलों की तान थाप दे रही है। ये वीरों के जोश को लड़ने हेतु उत्साहित कर रहे हैं। वैसे भी रंग और रण का विधान देखा गया है। रंग वीरों के जोश को द्विगुणित कर रहे हैं।
गले में चाहे प्रियतम की बॉहे हो या कृपाण, कंधों पर चाहे धनुषबाण हो या फूलमाला, चाहे रास — विलास हो या दलित पुकार! अब तो हर स्थिति में यही पुकार है कि वीरों का वसंत कैसा हो? अर्थात् उनमें वीरता और देशप्रेम कूट — कूटकर भरा हो।
कह दे अतीत! अब मौन त्याग,
लंके! तुझमें क्यों लगी आग?
ए कुरूक्षेत्र! अब जाग — जाग,
बतला अपने अनुभव अनंत
वीरों का कैसा हो वसंत?
भूषण अथवा कवि चंद नहीं,
बिजली भर दे वह छंद नहीं
है कलम बॅधी, स्वच्छंद नहीं
फिर हमें बतावे कौन? हंत।
वीरों का कैसा हो वसंत!
हल्दीघाटी के शिलाखंड
ऐ दुर्ग! सिंह गढ़ के प्रचंड,
राणा — ताना का कर घमंड
दो जगा आज स्मृतियॉ ज्वलंत,
वीरों का कैसा हो वसंत?
संदर्भ — प्रस्तुत काव्यांश 'वीरों का कैसा हो वसंत नामक कविता से लिया गया है। इसकी कवयित्री सुभद्राकुमारी चौहान है।
प्रसंग — प्रस्तुत काव्यांश में कवयित्री ने अतीत के माध्यम से वीरों में वीरता का संचार किया है।
व्याख्या — वीरों को उत्साहित करते हुए कवयित्री कहती हे — हे वीरों! तुम अपने अतीत से प्रेरणा लो। आखिर क्यों लंका में आग लगी? कुरूक्षेत्र, जो महाभारत का रणक्षेत्र था, उसके अनुभवों से प्रेरणा लो और स्वयं में वीरता का संचार करो।
हल्दीघाटी, जहॉ अकबर और राणा सॉगा के बीच युद्ध हुआ, उस युद्धभूमि को याद करो, जहॉ के दुर्ग सिंह के समान प्रचंड थे। महाराणा प्रताप और राणासॉगा की स्मृतियों को याद कर स्वयं में स्वाभिमान का संचार करो।
भूषण जैसे कवि असंख्य तो क्या, चंद भी नहीं है, ऐसे अब छंद नही हैं, जो वीरों में जोश भर दें। अब तो कवियों की कलम बॅधी हुई है, फिर भला कौन नौजवानों को दिशा दिखा सकता है। उन्हें ही स्वयं में वीरता एवं जोश का संचार करना होगा।
उद्बोधन (रामधारी सिंह 'दिनकर')
पद्यांशों की सन्दर्भ एवं प्रसंग सहित व्याख्या —
वैराग्य छोड़कर बॉहों की विभा सॅभालो,
चट्टानों की छाती से दूध निकालों।
है रूकी जहॉ भी धार, शिलाएॅ तोड़ो,
पीयूष चंद्रमाओं को पकड़ निचोडो।
चढ़ तुंग शैल — शिखरों पर सोम पियो रे।
योगियों नहीं, विजयी की सदृश जिओ रे!
छोड़ो मत अपनी आन, सीस कट जाए।
मत झुको अनय पर, भले व्योम फट जाए।
दो बार नहीं यमराज कंठ धरता है,
मरता है जो, एक ही बार मरता है।
तुम स्वयं मरण के मुख पर चरण धरो!
जीना हो तो मरने से नहीं डरो रे!
संदर्भ — प्रस्तुत पद्यांश 'रामधारीसिंह दिनकर' द्वारा रचित कविता 'उद्बोधन' से लिया गया है।
प्रसंग — प्रस्तुत पद्यांश में कवि ने नौजवानों को वीरता में जीने की प्रेरणा दी है।
व्याख्या — कवि नौजवानों को उद्बोधन देते हुए कहता है कि तुम वैराग्य छोड़ो और गृहस्थ जीवन का सम्पूर्ण आनंद उठाओं। समस्या रूपी चट्टानों को नष्ट करके आगे बढ़ो। नदी के समान शिलाओं को पार कर आगे बढ़ते जाओ। ऊॅचाइयों को छूते हुए आनंद का रसपान करो। योगी नही, विजयी के सदृश जिओ रे। चाहे शीश कट जाए, पर अपनी आन मत छोड़ो। चाहे आकाश फट जाए, किन्तु अन्याय के आगे मत झुको। मौत से न डरो, उसके मुख पर पैर रखकर आगे बढ़ो।
स्वातंत्र्य जाति की लगन, व्यक्ति की धुन है,
बाहरी वस्तु यह नहीं, भीतरी गुण है।
नत हुए बिना जो अशनि घात सहती है,
स्वाधीन जगत् में वही जाति रहती है।
वीरत्व छोड़ पर — का मत चरण गहो रे!
जो पड़े आन्, खुद ही सब आग सहो रे!
जब कभी अहं पर नियति चोट देती है,
कुछ चीज अहं से बड़ी जन्म लेती है,
नर जब भी भीषण विपत्ति आती है,
वह उसे और दुर्घर्ष बना जाती है।
चोटें खाकर बिफरों, कुछ अधिक तनो रे!
धधको, स्फुलिंग में बढ़ अंगार बनो रे!
संदर्भ — प्रस्तुत पद्यांश 'रामधारीसिंह दिनकर' द्वारा रचित कविता 'उद्बोधन' से लिया गया है।
प्रसंग — प्रस्तुत पद्यांश में स्वतंत्रता और वीरता का महत्व बताया गया है।
व्याख्या — कवि कहता हे कि स्वतंत्रता व्यक्ति का नैसर्गिक गुण है। हर व्यक्ति अपनी जाति का स्वतंत्र अस्तित्व चाहता है। जो जाति घात सहते हुए भी अपनी अस्मिता या अस्तित्व बनाए रखती हे, वही स्वतंत्र रह सकती हे। अपनी वीरता को छोड़कर दूसरे के चरण मत धोओ। अपनी आन पर आने वाले संकटों का सामना करो। कवि कहता है कि जब भी मनुष्य पर भीषण विपत्ति आती है, वह उसे और अधिक जुझारू बना देती है। चोटें खाकर आगे बढ़ो, अंगार के समान दहको और निरंतर आगे बढ़ते जाओ।
स्वर मेें पावक यदि नहीं, वृथा वंदन है।
वीरता नहीं, तो सभी विनय क्रंदन है।
सिर पर जिसके असिंघात रक्त चंदन है,
भ्रामरी उसी का करती अभिनंदन है।
दानवी रक्त से सभी पाप धुलते हैं।
ऊॅची मनुष्यता के पथ भी खुलते हैं।
जीवन गति है, वह नित अरूद्ध चलता है
पहला प्रमाण पावक का, वह जलता है।
सिखला निरोध — निज्र्वलन धर्म छालता है,
जीवन तरंग गर्जन है, चंचलता है।
धधको अभंग, पाल — विपल अरूण जलोरे!
धरा रोके यदि राह, विरूद्ध चलो रे!
संदर्भ — प्रस्तुत पद्यांश 'रामधारीसिंह दिनकर' द्वारा रचित कविता 'उद्बोधन' से लिया गया है।
प्रसंग — प्रस्तुत पद्यांश मेें कवि ने बाधाओं को पारकर आगे बढ़ने की प्रेरणा दी है।
व्याख्या — कवि कहता है कि यदि स्वर में आग नहीं है, तो वृथा वंदन है और यदि वीरता नहीं, तो सभी विनय सिर्फ क्रंदन है। जिसके सिर पर रक्त रूपी चंदन है, अभिनंदन सिर्फ उसी का होता है। राक्षसों को मारने से सभी पाप धुल जाते है। मानवता का पथ प्रशस्त हो जाता है। जीवन गति है, वह निरन्तर चलता रहता है। आग का पहला प्रमाण यही है कि वह जलता है। जीवन एक तरंग है, गर्जन है। आग की तरह जलो, सूरज की तरह दमको। यदि मार्ग में रूकावट आए तो दिशा बदल आगे बढ़ चलो।
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