पाठ — 6गद्य — भारती मेरे गॉव की सुख और शान्ति किसने छीन ली? (पं. रामनारायण उपाध्याय)
गाॅव का आदमी जाने कब से बाट जोह रहा है कि कोई आये और उससे भी कुछ ले जाए। उसका समग्र जीवन एक अपपढ़ी खुली पुस्तक की तरह सामने बिछा है। उनका रहन - सहन, खान - पान, वस्त्राभूषण, आचार - विचार, रीति - रिवाज, विश्वास और मान्यताएॅ गीता और कथाएॅ, नृत्य, संगीत और कलाएॅ हम कुछ न कुछ देने की क्षमता रखते हैं।
संदर्भ - प्रस्तुत गद्यांश ‘‘मेरे गाॅव की सुख और शांति किसने छीन ली‘‘ पाठ से अवतरित हे इसके लेखक पं. रामनारायण उपाध्यय जी है।
प्रसंग - प्रस्तुत गद्यांश में गाॅव के जीवन से कुछ सीखने एवं उसके अनुकरण करने पर बल दिया गया है।
व्याख्या - गाॅव का सहज जीवन मनुष्य को सद्मार्ग का संदेश दे सकता है, परन्तु किसी का ध्यान इस ओर नही है। ग्रामवासी अनन्त काल से प्रतीक्षा कर रहा है कि कोई उनके पास आये और उनके उन्मुक्त जीवन की पुस्तक से कुछ ग्रहण करे। ग्रामीण जीवन का रहन - सहन, खान - पान, पहनावा, व्यवहार मानव को बहुत कुछ शिक्षा देने की क्षमता रखता हैै। वहां के संगीत, नृत्य, कथाएॅ एवं अनान्य कलाएॅ जीवन को सरस बनाने में समर्थ है।
विशेष - सरल, सरस एवं प्रवाहपूर्ण खड़ी बोली। लाक्षणिकता से युक्त भावनात्मक शैली का प्रयोग।
‘‘गाॅव का आदमी निरक्षर भले हो, लेकिन सुसंस्कृत रहा है। वह विश्वास पर बिक जाता है, धर्म पर झुक जाता है। सब को सहता है, पर शिकायत नहीं करता। सब की सुनता है, पर अपनी ओर से कुछ नहीं कहता। वह कभी थक कर नहीं बैठता, झुक्कर नहीं चलता और त्याग में से प्राप्ति तथा परिश्रम में से आनन्द पाता आया है। दुःख का पहाड़ आ जाए तो सुख की क्षीण रेखा वह सदा मुस्कराता है। और अकेला रह जाने पर भी अपनी राह चलना नहीं छोड़ता। विभिन्न जातियाॅ, मतों और वर्गो में बॅटे होने पर भी वह समूचे गाॅव को एक परिवार मानता आया है।‘‘
सन्दर्भ - प्रस्तुत गद्यांश ‘‘मेरे गाॅव की सुख और शांति किसने छीन ली‘‘ पाठ से अवतरित हे इसके लेखक पं. रामनारायण उपाध्यय जी है।
प्रसंग - इस गद्यांश में लेखक ने ग्रामवासियों में पाई जाने वाली गहरी आस्था एवं विश्वास का वर्णन करते हुए कहा है।
व्याख्या - यह माना कि गाॅव का व्यक्ति निरक्षर हो सकता है, परन्तु वह संस्कारहीन नहीं है। उसकी अपनी संस्कृति है, उसके अपने संस्कार है। वह विश्वास का पक्का होता है। कभी किसी का विश्वास नहीं तोड़ता है। धर्म के लिए वह प्राण भी देने के लिए तत्पर रहता है। उसमें बड़ी सहनशीलता होती है। धर्म के लिए वह प्राण भी देने के लिए तत्पर रहता है। उसमें बड़ी सहनशीलता होती है। कष्ट सहकर भी वह कभी किसी से शिकायत नहीं करता है। वह सहिष्णु इतना होता है कि सबकी बातें सुनकर अपने पेट में रख लेता है। परन्तु अपनी तरफ से वह कुछ भी शिकायत नहीं करता है। वह बड़ा कर्मठ होता है। कभी थककर वह खाली नहीं बैठता है। किसी के सामने झुकना, जी हजूरी करना उसे बिल्कुल पसन्द नहीं है। वह दूसरों के लिए त्याग करना अच्दी तरह से जानता है। परिश्रम करने में उसे आनन्द की प्राप्ति होती है। ग्रामवासी के जीवन में भारी कष्ट आ जाने पर भी वह कभी विचलित नहीं होता है। दुःख में मुस्कराते रहना उसकी विशिष्ट जीवन - शैली होती है। अकेला चलना उसके लिए कोई परेशानी का कारण नहीं बन सकता है। अकेले रह जाने पर भी वह सदैव अपनी राह चलता है। अपनी मर्यादा में रहता है। सबसे बड़ी विशेषता यह होती है कि ग्रामीण लोग विभिन्न जातियों, मतों और समुदायों में विभाजित होते हुए भी पूरे गाॅव को अपना एक परिवार मानते है। उनकी दृष्टि में यह सारी धरती ही अपना परिवार होती है।
विशेष -
- भाषा सरल एवं सुबोध है। उसका अपना प्रभाव है।
- विचार बिल्कुल स्पष्ट और झुलसे हुए हैं।
बदलते हुए समय में लोक संस्कृति के बदलते हुए रूप से इन्कार नहीं किया जा सकता। लोक साहित्य में युग के अनुकूल अपने को ढालने की ओर नया युग का मार्गदर्शन करने की अपूर्ण क्षमता होती है। चुनौती के सामने सिर झुकाना लोक कार् स्वभाव नहीं है। लोक की गंगा तो युग — युग से प्रवाहमान नहीं है।
सन्दर्भ — प्रस्तुत गद्यांश ‘‘मेरे गाॅव की सुख और शांति किसने छीन ली‘‘ पाठ से अवतरित हे इसके लेखक पं. रामनारायण उपाध्यय जी है।
प्रसंग — प्रस्तुत गद्यांश में परिवर्तन के बारे में बताया गया है कि इसे रोका नहीं जा सकता लेकिन लोक — साहित्य इसका उचित मार्गदर्शन कर सकता है।
व्याख्या — लेखक ने निबन्ध में अपना विश्वास जताया हे कि बदलते समय में लोक संस्कृति में हो रहे परिवर्तन को रोका नहीं जा सकता है। परिवर्तन हमेशा से होते आए है, मानव समाज भी कई युगों से चला आ रहा है, लेकिन परिवर्तनों से लोक संस्कृति नष्ट नहीं हो जाती। परिवर्तन के समय लोक साहित्य दिशा देता है, समय के अनुसार अपने को बदलने का रास्ता बताता है। ऐसा नही है कि कोई भी अवांछित परिवर्तन आए और लोस संस्कृति को नष्ट कर जाये। लेखक अवांछित परिवर्तनों को एक चुनौती मानता है। अत: वह कहता है कि चुनौती के सामने व्यक्ति सिर झुका सकता है, लेकिन जन समूह तो चुनौती को स्वीकार कर उससे संघर्ष करने की क्षमता रखता है। विशेष —
- लोक जीवन की सहज ग्रहणशीलता और उसके स्वाभिमानी स्वभाव का चित्रण किया गया है।
- विवेचनात्मक शैली को अपनाया गया है।
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