पद्य — भारती
पाठ — 7
सामाजिक समरसता
कबीर की साखियॉ (कबीर)
पद्यांशो की सन्दर्भ एवं प्रसंग सहित व्याख्या
साई इतना दीजिए, जामै कुटुम समाय।
मैं भी भूखा न रहूॅ, साधु न भूखा जाय।।
दुर्बल को न सताइए, जाकी मोटी हाय।
मरी चाम की स्वॉस से, लौह भसम ह्वे जाय।।
जाति न पूछो साधु की, पूछि लीजिए ज्ञान।
मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान।।
साई इतना दीजिए, जामै कुटुम समाय।
मैं भी भूखा न रहूॅ, साधु न भूखा जाय।।
दुर्बल को न सताइए, जाकी मोटी हाय।
मरी चाम की स्वॉस से, लौह भसम ह्वे जाय।।
जाति न पूछो साधु की, पूछि लीजिए ज्ञान।
मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान।।
संदर्भ — प्रस्तुत साखियॉ 'कबीर की सखियॉ' शीर्षक से ली गई हैं। इनके रचयिता कबीरदास जी है।
प्रसंग — प्रस्तुत साखियॉ में कवि ने दुर्बल को न सताने की, साधु से जाति न पूछने की सीख दी है।
व्याख्या — कबरीदासजी कहते हैं कि हे प्रभु! मुझे इतना दीजिए कि जिसमें मैं भी भरपेट खा सकूॅ और मेरा परिवार भी भूखा न रहे तथा मेरे घर आया हुआ अतिथि भी भूखा न जाए।
कबीरदासजी कहते है कि दुर्बल को मत सताइए, वरना उसकी हाय से तुम बच न सकोगे। उसकी हाय इतनी खतरनाक होती है कि उससे लोहा भी भस्म हो जाता है।
हमें कभी भी साधु लोगों की जाति नहीं पूछना चाहिए, अपितु उसके ज्ञान को आत्मसात् करना चाहिए। हमेंशा तलवार की कीमत पूछना चाहिए, म्यान का मोलभाव नहीं करना चाहिए।
जाति हमारी आतमा, प्रान हमारा नाम।
अलख हमारा इष्ट है, गगन हमारा ग्राम।।
कामी क्रोधी, लालची, इन पै भक्ति न होय।
भक्ति करै कोई शूरमॉ, जातिवरण कुल खोय।।
ऊॅचे कुल कया जनमियॉ, जे करणी ऊॅच न होइ।
सोवन कलस सुरै भर्र्या, साधू निंद्या सोइ।।
संदर्भ — प्रस्तुत साखियॉ 'कबीर की सखियॉ' शीर्षक से ली गई हैं। इनके रचयिता कबीरदास जी है।
प्रसंग — प्रस्तुत साखियों में कबीरदासजी ने सत्कर्म व निष्काम भक्ति पर जोर दिया है।
व्याख्या — कवि कहता है कि जाति हमारी आत्मा है, प्राण हमारा नाम, हमारे आराध्य भगवान हैं, गगन हमारा ग्राम है।
जो व्यक्ति कामी, क्रोधी, लालची है, इनसे भक्ति सम्भव नहीं है। जो व्यक्ति भक्त्भिाव में डूब जाता है, वह जाति — कुल के बंधन से मुक्त हो जाता है।
यदि आपके कर्म ऊॅचे नही हैं तो ऊॅचे कुल में जन्म लेने से क्या फायदा। यदि स्वर्ण कलश शराब से भरा है, तो साधु अवश्य ही उसकी निंदा करेगा, न कि उसे ग्रहण करेगा।
जब गुण कूॅ गाहक मिलै, तब गुण लाख बिकाई।
जब गुण कौ गाहक नहीं, कौड़ी बदलै जाइ।।
सरपहि दूध पिलाइए, दूधै विष है जाइ।
ऐसा कोई ना मिलै, सौं सरपै विष खाइ।।
करता केरे बहुत गुण, आगुण कोई नांहि।
जे दिल खोजौ आपणौ, तौ सब औगुण मुझ माहि।।
जीवन — संदेश (राम नरेश त्रिपाठी)
जग में सचर — अचर जितने हैं, सारे कर्म निरत हैं।
धुन है एक न एक सभी को, सबके निश्चित व्रत हैं।
जीवनभर आतप सह, वसुधा पर छाया करता है।
तुच्छ पुत्र की भी स्वकर्म में, कैसी तत्परता है।
रवि जग में शोभा सरसाता, सोम सुधा बरसाता।
सब है पगै कर्म में कोई, निष्क्रिय दृष्टि न आता।
हे उद्देश्य नितांत तुच्छ तृण के भी लघु जीवन का उसी
उसी पूर्ति में वह करता है अंत: कर्ममय तन का।।
तुम मनुष्य हो, अमित — बुद्धि बल, विलसित जन्म तुम्हारा।
क्या उद्देश्य रहित है जग में तुमने कभी विचारा?
बुरा न मानो, एक बार सोचो तुम अपने मन में।
क्या कत्र्तव्य समाप्त कर लिए तुमने निज जीवन में।
वह सनेह की मूर्ति दयामयि माता तुल्य मही है।
उसके प्रति कत्र्तव्य तुम्हारा क्या कुछ शेष नहीं है।
हाथ पकड़कर प्रथम जिन्होंने चलना तुम्हें सिखाया।
भाषा सीखा ह्दय का अद्भुत रूप — स्वरूप दिखाया।।
जिनकी कठिन कमाई का फल खाकर बड़े हुए हो।
दीर्घ देह की बाधाओं में निर्भय खड़े हुए हो।
जिनके पैदा किए बुने वस्त्रों से देह ढके हो।
आतप — वर्षा शीतकाल में पीड़ित हो न सके हो।।
क्या उनका उपकार — भार तुम पर लवलेश नहीं है।
उनके प्रति कर्तव्य तुम्हारा कया कुछ शेष नहीं है।
सतत् ज्वलित दु:ख दावानल में जग् के दारूण रन में।
छोड़ उन्हें कायर बनकर तुम भाग बसे निर्जन में।।
यही लोक — कल्याण कामना, यही लोकसेवा है।
यही अमर करने वाले यश सुरतुरू का मेवा है।
जाओ पुत्र! जगत में जाओं, व्यर्थ में न समय गॅवाओं।
सदा लोककल्याण निरत हो, जीवन सफल बनाओं।।
संदर्भ — प्रस्तुत पद्यांश 'जीवन संदेश' नामक कविता से लिया गया है। इसके रचयिता रामनरेश त्रिपाठी हैं।
प्रसंग — प्रस्तुत पद्यांश में कवि ने लोककल्याण करने के लिए प्रेरित किया है।
व्याख्या — कवि कहता है कि पिता की कड़ी कमाई का फल खाकर तुम बड़े हुए हो। उन्होंने तुम्हें पाल — पोसकर बड़ा किया है। उनके बनाए हुए वस्त्रों से तुमने अपना तन ढ़का है। गर्मी, धूप, वर्षा, ठंड से बच सके हो।
क्या उनका उपकार, भारत तुम पर नहीं है? उनके प्रति क्या तुम्हारा कोई कर्तव्य नहीं है? दु:ख की आग में जलते हुए, तुम उन्हें छोड़कर कायर बनकर भाग निकले हो, यह गलत है।
माता — पिता और जगत् के सभी प्राणियों की सेवा करो, यही लोककल्याण है। कवि कहता है कि हे पुत्र! समय व्यर्थ में न गवॉओं, कल्याणकारी कार्यो में संलग्न रहो, तभी जीवन सफल होगा।
जनता के विश्वास कर्म मन ध्यान श्रवण भाषण में।
वास करो, आर्दश बनों, विजयी हो जीवन रण में।
अति अशांत दु:खपूर्ण विश्रृंखल क्रांति उपासक जग में।
रखना अपनी आत्मशक्ति पर दृढ निश्चय प्रतिपग में।।
जग की विषम आॅधियों के झॉके सम्मुख हो सहना।
स्थिर उद्देश्य — समान और विश्वास सदृश्य दृढ़ रहना।।
जाग्रत नित रहना उदारता — तुल्य असीम ह्दय मे।
अंधकार में शांत चंद्र — सा ध्रुव सा निश्चल भय में।।
जगन्नियंता की इच्छा से, यह संसार बना है।
उसकी ही क्रीड़ा का रूपक यह समस्त रचना है।
है यह कर्म — भूमि जीवों की यहॉ कर्मच्युत होना।
धोखे में पड़ना अलभ्य अवसर से है कर धोना।
पैदा कर जिस देश जाति ने तुमको पाला पोसा।
किए हुए है वह निज हित का तुमसे बड़ा भरोसा।
उससे होना उऋण प्रथम है सत्कर्तव्य तुम्हारा।
फिर दे सकते हो वसुधा को शेष स्वजीवन सारा।।
संदर्भ — प्रस्तुत पद्यांश 'जीवन संदेश' नामक कविता से लिया गया है। इसके रचयिता रामनरेश त्रिपाठी हैं।
प्रसंग — मातृभूमि के प्रति हमारे क्या कर्तव्य हैं, यहॉ कवि ने यही इंगित किया है।
व्याख्या — कवि कहता है कि जनता के विश्वास, आस्था को सदैव अपने मन में ध्यान रखना। जीवन रूपी रण में विजयी। संघर्ष भरे इस जीवन में सदैव अपनी आत्मशक्ति पर अपना विश्वास दृढ रखना। तूफानों, आॅधियों को सहन कर आगे बढ़ते जाना। अपन ह्दय में उदारता बनाए रखना। अंधकार में चंद्रमा के समान, ध्रुव के समान अटल रहना।
ईश्वर की इच्छा से यह संसार बना है। उसने ही इस समस्त संसार की रचना की है। यह जीवों की कर्मभूमि है। यहॉ उन्हें निरन्तर कर्मरत् रहना है। जिस देश — जाति ने तुम्हें पैदाकर पाला — पोसा, वे तुमसे अपने हित और कल्याण की अपेक्षा रखते है। उनके ऋण को चुकाना, तुम्हारा प्रथम कर्तव्य है। अपनी मातृभूमि को इसके बाद तुम अपना शेष जीवन सर्वस्व कर सकते हो।
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