पद्य — भारती
पाठ — 9जीवन — दर्शन चिर सजग आॅखें उनींदी (महादेवी वर्मा)पद्यांशों की सन्दर्भ एवं प्रसंग सहित व्याख्या
चिर सजग आॅखें उनींदी आज कैसा व्यस्त बाना।जाग तुझको दूर जाना!अचल हिमगिरि के हदय में आज चाहे कंप हो ले,या प्रलय के आॅसुओं में मीन अलसित व्योम रो ले,आज पी आलोक को डोले तिमिर की घोर छाया,जाग या विद्युत शिखाओं में निठुर तूफान बोले,पर तुझे है नाश पथ पर चिह्न अपने छोड़ आना।जाग तुझको दूर जाना!बॉध लेंगे क्या तुझे यह मोम के बंधन सजीले?पथ की बाधा बनेंगे तितलियों के पर रंगीले?विश्व का क्रंदन भुला देगी मधुप की मधुर गुनगुन,क्या डूबों देंगे तुझे यह फूल के दल ओस — गीले?तू न अपनी छॉह को अपने लिए कारा बनाना।जाग तुझको दूर जाना!
संदर्भ — प्रस्तुत पद्यांश — 'चिर सजग आॅखे उनीदी आज कैसा व्यस्त बाना' नामक गीत से अवतरित किया गया है। इसकी कवयित्री 'महादेवी वर्मा' है।
प्रसंग — प्रस्तुत पद्यांश में कवयित्री कहती है कि हे युवक, तुम्हें मोहमाया में न उलझकर कर्तव्यपथ पर आगे बढ़ते जाना है।
व्याख्या — महादेवी वर्मा कहती है कि हे नवयुवक, जागो, तुम्हें लम्बा रास्ता तय करना है, दूर तक जाना है। आज चाहे हिमालय पर्वत पर कंपन हो जाए या फिर प्रलय आ जाए, जिसकी विनाशिता पर धरती — आसमॉ आॅसू बहा ले। आज चाहे घनघोर अंधकार छा जाए या फिर भयंकर तूफान आ जाए, पर तुम्हें अपने कर्तव्य पथ पर आगे बढ़ते जाना है। अपने पैरों के निशान छोड़ते जाना है।
कबयित्री कहती है कि क्या तुम्हें ये मोह — माया के मोम के बंधन अपने में बॉध लेंगे? क्या तितलियों के रंगीले पर तुम्हारे रास्ते की बाधा बनेंगे? भौरें की मधुर गुनगुन क्या तुम्हें विश्व का क्रंदन भुला देगी? क्या फूलों के पर विद्यमान ओंस कण तुम्हें डूबों देंगे? कहने का आशय यह है कि अपने आसपास की मोहमाया में उलझकर न रह जाना अपनी छाया को अपने लिए कारा न बनाना। तुम्हें जलकल्याण, देशप्रेम के पथ पर निरंतर आगे बढ़ते जाना है।
मैंने आहुति बनकर देखा (अज्ञेय)
पद्यांशों की सन्दर्भ एवं प्रसंग सहित व्याख्या
मैं कब कहता हूॅ जग मेरी, दुर्धर गति के अनुकूल बने,
मैं कब कहता हॅू जीवन — मरू नंदन — कानन का फूल बने?
कॉटा कठोर है, तीखा है, उसमें उसकी मर्यादा है,
मैं कब कहता हॅू वह घटकर प्रांतर का ओछा फूल बने?
मैं कब कहता हूॅ मुझे युद्ध में कहीं तीखी चोट मिले?
मैं कब कहता हॅू प्यार करूॅ तो मुझे प्राप्ति की ओट मिलें?
मैं कब कहता हॅू विजय करूॅ मेरा ऊॅचा प्रसाद बने?
या पात्र जगत् की श्रद्धा क मेरी धूॅधली सी याद बने?
पथ मेरा रहे प्रश्स्त सदा कयों विकल करे यह चाह मुझे?
नेतृत्व न मेंरा छिन जावे, क्यों इसकी हो परवाह मुझे?
मैं प्रस्तुत हॅू चाहे मेरी मिट्टी जनपद की धूल बने!
मैं कब कहता हूॅ जग मेरी, दुर्धर गति के अनुकूल बने,
मैं कब कहता हॅू जीवन — मरू नंदन — कानन का फूल बने?
कॉटा कठोर है, तीखा है, उसमें उसकी मर्यादा है,
मैं कब कहता हॅू वह घटकर प्रांतर का ओछा फूल बने?
मैं कब कहता हूॅ मुझे युद्ध में कहीं तीखी चोट मिले?
मैं कब कहता हॅू प्यार करूॅ तो मुझे प्राप्ति की ओट मिलें?
मैं कब कहता हॅू विजय करूॅ मेरा ऊॅचा प्रसाद बने?
या पात्र जगत् की श्रद्धा क मेरी धूॅधली सी याद बने?
पथ मेरा रहे प्रश्स्त सदा कयों विकल करे यह चाह मुझे?
नेतृत्व न मेंरा छिन जावे, क्यों इसकी हो परवाह मुझे?
मैं प्रस्तुत हॅू चाहे मेरी मिट्टी जनपद की धूल बने!
संदर्भ — प्रस्तुत पद्यांश 'मैने आहुति बनकर देखा' नामक कविता से लिया गया है। इसके कवि 'अज्ञेय' है।
प्रसंग — प्रस्तुत पद्याांश में कवि कहता है कि मैं कब कहता हूॅ कि जीवन मेरी फूलों की राह बन। मैं तो जवीन आहुति देने को तत्पर हॅू।
व्याख्या — कवि कहता है कि मैं कब कहता हॅू कि दुनिया मेरी गति के अनुकूल बने, जीवन बाग बगीचे, वन के फूल बने? कॉटा कठोर होता है यही उसकी प्रकृति है। मैं कब कहता हॅू कि वह कठोरता त्यागकर फूल बन जाए?
मैं कब कहता हूॅ कि मुझे युद्ध में चोट न मिल? मैं प्यार करूॅ तो मुझे उसका प्रतिदान मिले? मैं यह भी नहीं कहता हॅू कि विजयी बनूॅ, मेरा ऊॅचा महल बने, मैं जगत् की श्रद्धा का पात्र बनूॅ? मुझे यह भी परवाह नहीं है कि मेरा नेतृत्व न छिन जावे? मैं तो यहॉ तक तैयार हॅू कि मेरी मिट्टी मातृभूमि की धूल बन जाए।
फिर उस धूली का कण — कण भी मेरा गतिरोधक शूल बने।
अपने जीवन को रस देकर जिसको यत्नों से पाला है।
क्या वह केवल अवसाद — मलिन झरते आॅसू की माला है?
वे रोगी होंगे प्रेम जिन्हें, अनुभव रस का कष्टु प्याला है
वे मुर्दे होंगे प्रेम जिन्हें, सम्मोहनकारी हाला है।
मैंने विदग्ध हो जान लिया, अंतिम रहस्य पहचान लिया
मैंने आहुति बनकर देखा, यह प्रेम यज्ञ की ज्वाला है।
मैं कहता हॅू, मैं बढ़ता हॅू, नभ की चोटी चढ़ता हूॅ,
कुचला जाकर भी धूली सा, आॅधी और उमइता हॅू।
मेरी जीवन ललकार बने, असफलता ही असि धार बने
इस निर्मम रण में पग — पग का, रूकना ही मेरा वार बने।
भव सारा तुझको है स्वाहा, सब कुछ तप कर अंगार बने।
तेरी पुकार सा दुर्निवार, मेरा यह नीरव प्यार बने।
संदर्भ — प्रस्तुत पद्यांश 'मैने आहुति बनकर देखा' नामक कविता से लिया गया है। इसके कवि 'अज्ञेय' है।
प्रसंग — कवि कहता है कि यह जीवन यज्ञ की ज्वाला के समान है, जहॉ आहुति देना है।
व्याख्या — कवि कहता है कि अपने जीवन को बड़े यत्नपूर्वक मैंने पाला है। क्या वह जीवन अवसाद मलिन झरते आॅसू की माला है? वे रोगी हैं, जिनके लिए प्रेम रस का कटु प्याला है। वे मुर्दे है, जिनके लिए प्रेम सम्मोहन करने वाला विष है। मैंने यह जान लिया है कि यह प्रेम यज्ञ की ज्वाला है। मैं कहता हॅू कि मेरा जीवन ललकार बने, असफलता ही जीवन धार बने। इस निर्मम रण में कदम — कदम पर रूकना ही मेरा बार बने। जीवनरूपी यज्ञभूमि में सब कुछ तपकर अंगार बने। तेरी पुकार के समान मेरा यह नीरव प्यार बने।
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