पाठ — 8 कल्याण की राह (व्याख्या)

पद्य — भारती 
पाठ — 8 
कल्याण की राह 
पथ की पहचान (हरिवंशराय बच्चन)

पद्याांशों की सन्दर्भ एवं प्रसंग सहित व्याख्या

पूर्व चलने के बटोही
बाट की पहचान कर ले।
पुस्तक में है नही,
छापी गई इसकी कहानी
हाल इनका ज्ञात होता
न औरों की जबानी,

अनगिनत राही गए इस
राह से, उनका पता क्या,
पर गए कुछ लोग इस पर,
छोड़ पैरों की निशानी,

यह निशानी मूक होकर
भी बहुत कुछ बोलती है,
खोल इसका अर्थ, पंथी
पंथ का अनुमान कर लै।
पूर्व चलने के बटोही
बाट की पहचान कर ले।

संदर्भ — प्रस्तुत पद्यांश हरिवंशराय बच्चन द्वारा रचित 'पथ की पहचान' कविता से लिया गया है।
प्रसंग — कवि पथिक से कहता है कि चलने के पहले रास्ते को भलीभॉति जान लें।
व्याख्या — कवि पथिक से कहता है कि इन रास्तों की जानकारी पुस्तकों में उपलब्ध नहीं है और न ही लोगों से पूछकर इसकी जानकारी हासिल की जा सकती है। इस रास्ते से अनगिनत राही गए है, पर उनका कोई पता नहीं है, किन्तु कुछ लोग अपने पदचिन्ह छोड़ गए हैं। य​द्यपि ये मूक हैं, किन्तु मूक होकर भी बहुत कुछ कहते हैं। इन संकेतो का अर्थ पता करने से कठिन रास्ते की जानकारी मिलती है। अत: चलने के पहले रास्ते की जानकारी ले लेवें।

यह बुरा है या कि अच्छा
व्यर्थ दिन इस पर बिताना,
अब असम्भव, छोड़ यह पथ
दूसरे पर पग बढ़ाना,

तू इसे अच्छा समझ,
यात्रा सरल इससे बनेगी,
सोच मत केवल तुझे ही
यह पड़ा मन में बिठाना

हर सफल पंथी, यही
विश्वास ले इस पर बढ़ा है।
तू इसी पर आज अपने
चित्त का अवधान कर ले।

 पूर्व चलने के बटोही
 बाट की पहचान कर ले।

संदर्भ — स्तुत पद्यांश हरिवंशराय बच्चन द्वारा रचित 'पथ की पहचान' कविता से लिया गया है। 

प्रसंग — कवि कहता है कि जब चलना ही है तो व्यर्थ सोच विचार नहीं करना चाहिए। 

व्याख्या — इस रास्ते पर चलना अच्छा है या बुरा, इस पर चिन्तन करना व्यर्थ है। ​क्योंकि तुझे इसी रास्ते पर चलना है। इसी को अच्छा समझकर इस पर चलना प्रारम्भ कर दे। इससे तेरी यात्रा सफल हो जाएगी। ऐसा मत सोच कि केवल तुझे ही यह बात मन में बैठाना हे। जो भी यात्री इस पर चलकर सफल हुए हैं, उन सभी ने इसी विश्वास को लेकर यात्रा की है। तू भी अपने चित्त को इसी पर एकाग्र करके यात्रा प्रारम्भ कर दे। चलने के पूर्व रास्ते से भली — भॉति पहचान कर लें।  

है अनिश्चित किस जगह पर 
सरित, गिरि, गहवर मिलेंगे,
है अनिश्चित, किस जगह पर
बाग — वन सुंदर मिलेंगे।
किस जगह यात्रा खत्म हो
जाएगी, यह भी अनिश्चित
हे अनिश्चित कब सुमन कब 
कंटको के शर मिलेंगें,

कौन सहसा छूट जाएॅगे
मिलेंगे कौन सहसा
आ पड़े कुछ भी, रूकेगा
तू न, ऐसी आन कर ले।
पूर्व चलने के, बटोही
बाट की पहचान कर ले।

संदर्भ — स्तुत पद्यांश हरिवंशराय बच्चन द्वारा रचित 'पथ की पहचान' कविता से लिया गया है। 

प्रसंग — यह जीवन डगर अनिश्चित है। इसका पूर्वानुमान असम्भव है। उपर्युक्त पद्यांश में कवि ने यह बताया है। 

व्याख्या — यह जीवन डगर अनिश्चित है। इसका पूर्वानुमान असम्भव हे। न जाने इस रास्ते पर किस जगह नदी, पर्वत, खड्डे हें, अर्थात् रास्ते में कब संकट आएॅगें, यह अनिश्चित है। राह में किस जगह वन, सुंदर बगीचे, पुष्प मिलेंगे यह भी अनिश्चित है। न जाने कब यात्रा का अंत हो, यह भी अनिश्चित है। जीवन में कब फूल खिलेंगे, कब कॉटे, यह भी अनिश्चित है। इस यात्रा में न जाने कब कौन बिछड़ जाएगा और न जाने कौन कब आ मिलेगा, यह भी अनिश्चित है। चाहे कुछ भी हो, तेरी यात्रा रूकेगी नहीं, ऐसा दृढ संकल्प कर ले। चलने के पूर्व रास्ते की अच्छी तरह पहचान कर ले। 

कौन कहता है कि स्वप्नों
को न आने दें हदय में,
देखते सब हैं इनमें
अपनी उमर, अपने समय में

और तू कर यत्न भी तो
मिल नहीं सकती सफलता,

ये उदय होते, लिए कुछ
ध्येय नयनों के निलय में
 किंतु जग के पंथ पर यदि
स्वप्न दो तो सत्य दो सौ
स्वप्न पर ही मुग्ध मत हो
सत्य का भी ज्ञान कर ले।

पूर्व चलने के बटोही,
बाट की पहचान कर ले।

संदर्भ — स्तुत पद्यांश हरिवंशराय बच्चन द्वारा रचित 'पथ की पहचान' कविता से लिया गया है। 

प्रसंग — कवि ने यहॉ सपनों के संदर्भ में बात कही है। 

व्याख्या — कवि सपने देखने को मना नहीं करता है। वह कहता है कि सपने तो सभी अपनी उम्र तथा अपने समय में देखते है। प्रयत्न करने पर भी सपने देखना बंद नहीं किया जा सकता। सपनों का अपना कुछ संकेत हे। ये किसी उद्देश्य से प्रेरित हो नयनों में आते हैं, परन्तु इस जीवन पथ पर यदि दो सपने हैं तो दो सौ सत्य है। केवल सपने देखने में ही जीवन व्यर्थ मत गॅवाना। जीवन की सच्चाइयों से वाकिफ होना चाहिए। चलने के पूर्व राह की पहचान कर लें।  

स्वप्न आता स्वर्ग का, दृग
कोरकों में दीप्ति आती,
पंख लग जाते पगों को 
ललकती उन्मुक्त छाती,

 रास्ते का एक कॉटा
 पॉव का दिल चीर देता,

रक्त की दो बूॅद गिरती,
एक दुनिया डूब जाती, 
आॅख में ही स्वर्ग लेकिन,
पॉव पृथ्वी पर टिके हों,
कंटकों की इस अनोखी
सीख का सम्मान कर ले।

  पूर्व चलने के, बटोही
  बाट की पहचान कर ले।

संदर्भ — स्तुत पद्यांश हरिवंशराय बच्चन द्वारा रचित 'पथ की पहचान' कविता से लिया गया है। 

प्रसंग — यहॉ कवि ने सपने एवं यथार्थ में संबंध बताया है। 

व्याख्या — अच्छे सपने आॅखों में नई ज्योति जलाते है। मनुष्य में नई इच्छाएॅ जगती हैं। पैरों में पेख लग जाते है, किन्तु मार्ग का कॉटा सपनों को लहुलुहान कर देता है। रक्त की गिरी दो बूॅद सपनों को तोड़ देती हे। चाहे आॅखों में स्व्प्न हो किन्तु पॉव पृथ्वी पर टिके होना चाहिए। कॉटों की इस सीख का सम्मान करो।  

चरैवेति — जनगरबा (नरेश मेहता)

पद्यांशों की सन्दर्भ एवं प्रसंग सहित व्याख्या 

चलते चलो, चलते चलो
सूरज के संग — संग चलते चलो, चलते चलो।

 तमके जो बंदी थे 
 सूरज ने मुक्त किए,
 किरनों से गगन पोंछ
 धरती को रंग दिए,

सूरज को विजय मिली, ऋतुओं की रात हुई,
कह दो इन तारों से चंदा के संग — संग चलते चलो।

  रत्मयी वसुधा पर 
  चलने को चरण दिए,
  बैठी उस क्षितिज पार
  लक्ष्मी, श्रृंगार किए,

आज तुम्हें मुक्ति मिली, कौन तुम्हें दास कहे, 
स्वामी तुम ऋतुओं के, संवत् के संग — संग चलते चलो।।

संदर्भ — प्रस्तुत पद्यांश 'चरैवेति जन गरबा' कविता से अव​तरित किया गया है। इसके रचयिता ​कवि नरेश मेहता है। 

प्रसंग — कवि ने निरन्तर चलने की प्रेरणा प्रदान की है।

व्याख्या — कवि चलने की प्रेरणा देते हुए कहता हे कि चलते चलो, चलते चलो। सूरज के संग — संग चलते चलो। अंधकार के जो बंदी थे, सूरज ने उन्हें मुक्त किया है। किरणों के रूप में धरती को नया रूप दिया है। सूरज को विजय मिली, ऋतुओं की रात हुई। कह दो इन तारों से चंदा के संग — संग चलते चलो। रत्नों के भण्डार से युक्त् वसुधा पर चलने को चरण दिए हैं। क्षितिज के उस पार लक्ष्मी श्रृंगार किए बैठी है। अर्थात् मेहनत करने से लक्ष्मी की प्राप्ति सम्भव हे। आज तुम्हारी जीत हुई हे। तुम ऋतुओं के दास हो। संवत् के संग — संग चलते चलो। 

नदियां ने चलकर ही
सागर का रूप लिया,
मेद्यों ने चलकर ही
धरती का गर्भ दिया,

  रूकने का मरण नाम, पीछे सब प्रस्तर हैं,
  आगे है देवयान, युग के ही संग — संग चलते चलो।

मानव जिस ओर गया
नगर बसे, तीर्थ बने,
तुमसे है कौन बड़ा
गगन सिंधु मित्र बने,

   भूमा का भोगो सुख, नदियों का सोम पियो,
   त्यागों सब जीर्ण बसन, नूतन के संग — संग चलते चलो।।

संदर्भ — प्रस्तुत पद्यांश 'चरैवेति जन गरबा' कविता से अव​तरित किया गया है। इसके रचयिता ​कवि नरेश मेहता है।
प्रसंग — कवि ने वक्त के साथ आगे बढ़ने की प्रेरणा दी है। 
व्याख्या — नदियों ने निरंतर चलकर ही अंतत: सागर का रूप लिया। मेघों ने ही वर्ण की, धरती को गर्भ दिया। जीवन चलने का नाम है। रूकना मरण के समान है। रूकना, पीछे मुड़ना पत्थर के समान है। आगे हे देवयान अर्थात्  बढ़ना मंदिर या पूजाघर के समान हे। मानव ने नगर बसाए, तीर्थ बनाए। गगन, सिंधु सभी को अपना मित्र बनाया। अब भूमि का सुख भोगो, आगे बढ़कर नदियों का सोमपान करो। पुराना सब त्यागो, नूतन के संग आगे बढ़ो। 
 

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