पाठ - 11 मन की एकाग्रता (व्याख्या)

 पाठ - 11

मन की एकाग्रता

‘‘ स्थितप्रज्ञ वह है, जिसकी बृद्धि अस्थिर, चंचल तथा विचलित नहीं है। स्थितप्रज्ञता इन्द्रिय और मन से संयमित बुद्धि का नाम है।‘‘

सन्दर्भ - उपर्युक्त गद्यांश ‘मन की एकाग्रता‘ शीर्षक पाठ से अवतरित किया गया है। इसके लेखक पं. बालकृष्ण भारद्वाज हैं।
प्रसंग - उक्त गद्यांश में लेखक ने स्थितप्रज्ञ का स्वरूप स्पष्ट करते हुए लिखा है -
व्याख्या - स्थित प्रज्ञ का अर्थ है - जिसकी बृद्धि स्थिर है। जिस व्यक्ति की बुद्धि अस्थिर, चंचल या विचलित नहीं है, वह ‘स्थितप्रज्ञ‘ कहलाता है। जिस व्यक्ति की इन्द्रियाॅ और मन संयमित हैं, वह स्थितप्रज्ञ है। दूसरे शब्दों में, जिस व्यक्ति की बुद्धि इन्द्रियों और मन के माध्यम से स्थिर या अविचलित हो गई है, वह स्थितप्रज्ञ है और जिसमें वह गुण पाया जाता है, उसे स्थितप्रज्ञता कहते हैं। यह विशेषता महान ज्ञानी साधक पुरूषों में पायी जाती है।
विशेष - स्थित प्रज्ञ का स्वरूप की स्पष्टता देना।

‘‘यदि इन्द्रियों को विषयों से बलपूर्वक हठयोग के द्वारा दूर भी कर लें, तो विषयों का चिन्तन नहीं छूटता। वह अवसर आने पर पुनः विकसित होगा। जैसे - ग्रीष्म ऋतु के ताप से पृथ्वी पर वनस्पतियाॅ सूख जाती हैं, पर वर्षा ऋतु में जल पाकर फिर पल्लवित हो जाती हैं।‘‘

सन्दर्भ - उपर्युक्त गद्यांश ‘मन की एकाग्रता‘ शीर्षक पाठ से अवतरित किया गया है। इसके लेखक पं. बालकृष्ण भारद्वाज हैं।
प्रसंग - उक्त गद्यांश में लेखक ने विषयों के चिंतन की प्रबलता का उल्लेख करते हुए कहा है -
व्याख्या - इन्द्रियाॅ बड़ी प्रबल होती है। इनका सहज स्वभाव है - विषयों के प्रति आकर्षित होना। यदि इन इन्द्रियों को हठयोग के द्वारा बलात् विषयों से दूर करने का प्रयास भी किया जाए, तो ये अवसर मिलते ही वापस विषयों की ओर दौड़ जाती है। उदाहरण के लिए, ग्रीष्म ऋतु में ताप के प्रभाव से पृथ्वी पर स्थित वनस्पतियाॅ सूख जाती हैं। परन्तु जैसे ही वर्षा ऋतु का जल उन्हें प्राप्त होता है, वे वनस्पतियाॅ पुनः जीवित हो जाती हैं। सारांश यह है कि इन्द्रियों का दमन नहीं किया जाय, उनका शमन किया जाय। इन्हें सेवा कार्यो, राष्ट्रभक्ति, दीन - सेवा आदि कार्यो में संलग्न कर दिया जाए, तभी ये शांत रह सकती हैं।
विशेष - विषय की चिंतन्ता को सही ढंग से प्रस्तुत करना।

‘‘अनियंत्रित इच्छाएॅ समाज में अनाचार पनपाएॅगी। लोग कामनाओं से आवेशित होकर निषिद्ध आचरण में प्रवृत्त होवेंगे। अतः इन्द्रियों द्वारा विषयों का सेवन तो हो, पर विवकेशून्य आसक्ति न हो। इंद्रियाॅ अपने वश में रहें।‘‘

सन्दर्भ - उपर्युक्त गद्यांश ‘मन की एकाग्रता‘ शीर्षक पाठ से अवतरित किया गया है। इसके लेखक पं. बालकृष्ण भारद्वाज हैं।

प्रसंग - उक्त गद्यांश में लेखक ने अनियंत्रित इच्छाओं के दुष्प्रभाव का संकेत करते हुए लिखा है -
व्याख्या - इच्छाएॅ अनन्त होती है। इनका कभी अन्त नहीं होता है। यदि इन्हें अनियंत्रित अवस्था में छोड़ दिया गया, तो ये समाज में बुराइयों को जन्म देती है। अनाचार फैलाती हैं। कामनाओं या इच्छाओं के वंशीभूत होकर लोग गलत आचरण करने लगते है। अतः इन्द्रियों के द्वारा विषयों का उपभोग तो किया जाए, परन्तु एक निश्चित मर्यादा में। अमर्यादित विषय - भोग व्यक्ति को पतन के मार्ग में ले जाता है। उसके विवके को समाप्त कर देता है। अच्छा तो यह होगा कि इन्द्रियों को अपने वश में रखा जाए। जैसे - घोड़े के नियंत्रित करने के लिए उसके मुॅह पर वल्गा या लगाम लगा दी जाती है।
विशेष - भाषा सरल, सुबोध एवं विवेचनात्मक शैली लिए है। 


मन की एकाग्रता (प्रश्न — उत्तर )


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