मेरा आदर्श महापुरुष
अथवा
मेरा प्रिय नेता (महात्मा गांधी)
लोग कहते हैं बदलता है जमाना अकसर।
महान वे हैं जो ज़माने को बदल देते हैं।।
उपर्युक्त पंक्तियाँ संकेत करती हैं उन महान् विभूतियों की ओर जो अपने व्यक्तित्व के बलबूते पर एक अलग पहचान कायम करती हैं। ऐसी विभूतियाँ किसी एक देश को ही नहीं, अपितु समस्त विश्व को मार्गदर्शन प्रदान करती हैं व निराशा में आशा का, कष्ट में नवचेतना का संचार करती हैं। ऐसी ही महान् विभूतियों में एक नाम आता है-अहिंसा के अवतार, शांति के साधक, सत्य के प्रबल समर्थक राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का।
महात्मा गांधी जी का जन्म पोरबंदर नामक स्थान पर 2 अक्तूबर, 1869 ई. को हुआ था। इनका पूरा नाम मोहनदास कर्मचंद गांधी था। इनके पिता कर्मचंद गांधी एक रियासत के दीवान थे तथा माता पुतलीबाई एक अत्यंत दयालु, उदार, धार्मिक विचारधारा की महिला थी। गांधी जी की धार्मिक प्रवृत्ति, सत्यनिष्ठा, पवित्र भावना, उज्ज्वल चरित्र आदि विशेषताएँ इनके माता-पिता की ही देन थी। इनकी प्रारंभिक शिक्षा राजकोट में तथा बैरिस्ट्री की शिक्षा इंग्लैंड में हुई। इनका विवाह कस्तूरबा से इंग्लैंड जाने से पूर्व ही हो गया था। गांधी जी 1890 ई. में इंग्लैंड से वकील बनकर लौटे व भारत में वकालत करनी शुरू कर दी।
वकालत के दौरान एक बार गांधी जी को एक गुजराती व्यापारी के मुकदमे की पैरवी के लिए दक्षिण अफ्रीका जाना पड़ा। यहाँ गांधी जी ने गोरी सरकार के अत्याचार, भारतीयों की दुर्दशा, अन्याय, शोषण आदि को निकटता से देखा व अनुभव किया। इससे क्षुब्ध होकर उन्होंने सत्याग्रह का मार्ग अपनाया व इसी से वे गांधी से ‘महात्मा गांधी’ बन गए। यद्यपि इस आंदोलन के दौरान उन्हें कई बार अपमान भी सहना पड़ा, किंतु अंततः विजय गांधी जी की हुई। अब उन्होंने भारत को स्वतंत्र कराने का निश्चय किया।
गांधी जी ने भारत माता की हथकड़ियाँ काटने के लिए जो युद्ध छेड़ा, वह सत्य व अहिंसा का युद्ध था। उन्होंने इन दोनों शस्त्रों की मदद से रक्त की एक भी बूंद बहाए बिना विभिन्न आंदोलन चलाए, जिनमें 1917 ई. का ‘कृषक सुधार आंदोलन’, 1920 ई. का असहयोग आंदोलन, 1930 ई. का ‘सविनय अवज्ञा आंदोलन’, आदि प्रमुख हैं। इन आंदोलनों से ब्रिटिश साम्राज्य की नींव हिल गई। अंग्रेजों को भारत में अपनी सत्ता का सूर्यास्त होता दिखाई पड़ने लगा।
अतः अंतिम कोशिश के रूप में उन्होंने अपना दमन-चक्र तेज़ कर दिया, किंतु इसका परिणाम विपरीत हुआ, अंग्रेजों के अत्याचारों ने भारतीयों की क्रोधाग्नि में घी का काम किया। अब उनके मन में अंग्रेजों के प्रति घृणा चरमसीमा को छूने लगी। ऐसे ही समय में 1942 ई. को महात्मा गांधी जी द्वारा भारत छोड़ो आंदोलन की घोषणा की गई। इस घोषणा से समस्त भारतीयों में नवचेतना का संचार हुआ। करोड़ों कदम गांधी जी से कदम मिलाकर चल पड़े। इसीलिए तो एक कवि ने अत्यंत स्वाभाविक रूप से अभिव्यक्ति की है –
चल पड़े जिधर जो डग मग में,
चल पड़े कोटि पग उसी पर,
पड़ गई जिधर भी एक दृष्टि
गड़ गए कोटि दृग उसी ओर।
अंततोगत्वा अंग्रेजों को भारत छोड़कर जाना ही पड़ा। भारत ने 15 अगस्त, 1947 को स्वतंत्रता के प्रांगण में सुख की साँस ली। भारत की यह स्वाधीनता विश्व के लिए एक अनूठी मिसाल थी।
भारत स्वतंत्र तो हो गया, किंतु अंग्रेज़ जाते-जाते एक भयंकर प्रहार कर गए। वे देश को दो टुकड़ों में बाँट गए–भारत
व पाकिस्तान। गांधी जी अपनी माँ के टुकड़े होते नहीं देख सकते थे। अतः उन्होंने देश भर में घूम-घूम कर एकता की भावना का प्रचार किया, अनशन व्रत धारण किया। तथापि अंग्रेज़ों की लगाई हुई सांप्रदायिकता की अग्नि शांत न हो सकी। अपितु गांधी जी की नीति के कारण कुछ लोग उनके विरुद्ध हो गए। इसी कारण 30 जनवरी, 1948 ई. को एक प्रार्थना सभा में, नई दिल्ली में नाथूराम गोडसे नामक दानव ने गोली चलाकर गांधी जी को सदैव के लिए हमसे दूर कर दिया। इस प्रकार अहिंसा का पुजारी हिंसा की भेंट चढ़ गया। इस शोक समाचार को जिस किसी ने सुना, उसी का मन चीत्कार उठा।
यद्यपि आज गांधी जी शारीरिक रूप से हमारे मध्य विद्यमान नहीं हैं, तथापि उनके सिद्धांत, उनकी शिक्षाएँ, उनके उपदेश उनके विचार आज भी हमारे पथ-प्रदर्शन कर रहे हैं। हमारा कर्तव्य बनता है कि हम उनके बताए मार्ग का अनुकरण करें। इसी से गांधी जी की पवित्र आत्मा को शांति मिलेगी, विश्व के क्षितिज पर फैले युद्ध के बादल छिन्न-भिन्न होंगे व देश के लिए उन्नति का मार्ग प्रशस्त होगा।
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