“परहित सरिस धर्म नहीं भाई”
अथवा
‘परोपकार’
अथवा
“मनुष्य वही है जो मनुष्य के लिए मरे”
“परहित सरिस धर्म नहीं भाई।
पर पीड़ा सम नहिं अधमाई॥”
गोस्वामी तुलसीदास जी की ये पंक्तियाँ मानव के एक विशेष गुण की ओर संकेत करती हैं। वह गुण है-परोपकार। मानव जब निस्स्वार्थ भावना से दूसरों के हित में कार्य करता है वही कार्य परोपकार कहलाता है।
मन, वचन, कर्म से दूसरों का उपकार करना सच्ची मानवता है, पुण्य है, धर्म है। इसी से आत्मिक सुख प्राप्त होता है। इसीलिए हरबर्ट ने कहा था-“परोपकार करने की एक खुशी से दुनिया की सारी खुशियाँ छोटी है।” रहीम ने भी इसी सत्य को उजागर करते हुए कहा था –
“यों रहीम सख होत है उपकारी के संग।
बाँटनवारे को लगे ज्यों मेहंदी को रंग॥”
प्रकृति परोपकार का प्रत्यक्ष प्रमाण है। नदियाँ अपनी गोद में अपार जलराशि समेटे हुए एक स्थान से दूसरे स्थान पर बहती रहती हैं; वे स्वयं जल नहीं पीतीं। वृक्ष अपने फल स्वयं नहीं खाते, अपितु अपने फल व छाया से दूसरों की थकान दूर करने में अपनी सार्थकता मानते हैं। सूर्य स्वयं के लिए नहीं चमकता, वह खुद तपकर जगत के अंधकार को दूर करता है। चंद्रमा अमृत-वर्षा करता है। धरती माता हम सबका भार वहन करती है, इसके बावजूद अन्न के कणों से हमारा पोषण करती है। वायु निरंतर बह-बहकर प्राणियों को जीवन दान देती है। ये समस्त तत्त्व निरंतर परोपकार में लीन हैं।
मानव और पशु में एक प्रमुख अंतर है कि जो परहित भावना मानव में पाई जाती है, व पशु में नहीं होती। पशु के सभी कार्य अपने तक ही सीमित होते हैं। इसी कारण ‘आहार’, ‘निद्रा’, ‘भय’, ‘मैथुन’ की समानता होने पर भी मानव, पशु से श्रेष्ठ माना गया है। इस सत्य को स्पष्ट करते हुए मैथिलीशरण गुप्त जी ने कहा है –
“यह पशु प्रवृत्ति है कि आप आप ही चरे,
मनुष्य है वही जो मनुष्य के लिए मरे।”
भगवान शंकर ने देवों-दानवों के हितार्थ विषपान किया। दधीचि ने वृत्रासुर के विनाश के लिए अपनी अस्थियाँ तक दान कर दी। रंतिदेव ने क्षुधातुर होने के बावजूद अपना भोजन दूसरे के लिए त्याग दिया, महाराज शिवी ने कपोत की रक्षा के लिए उसके मांस के बराबर अपने शरीर का मांस देना सहर्ष स्वीकार किया, ईसा मसीह सूली पर चढ़ गए, असंख्य स्वतंत्रता सेनानी देशहित के लिए शहीद हो गए। इस प्रकार के नित्य वंदनीय परोपकारियों के नामों से भारतीय संस्कृति ओत-प्रोत है।
परोपकार का जीवन में बहुत महत्त्व है। इससे मनुष्य की आत्मा प्रसन्न होती है। जीवन की विपत्तियाँ दूर होती हैं। चाणक्य के शब्दों में ‘जिनके हृदय में सदा परोपकार करने की भावना रहती है, उनकी विपत्तियाँ नष्ट हो जाती हैं और पग-पग संपत्ति प्राप्त होती है।” परोपकार से मनुष्य दूसरों को भी अपने समान समझते हुए उनके हितार्थ काम में लगा रहता है, जिससे आपसी कटुता, वैमनस्य दूर हो जाते हैं। भारतीय संस्कृति में इस भावना पर प्रकाश डालते हुए कहा गया है –
“अयं निजः परोवेत्ति, गणना लघुचेतसां।
उदारचरितानाम् तु वसुधैव कुटुंबकम्॥”
अर्थात् यह अपना है या पराया, इसकी गणना तो छोटे दिल वाले करते हैं। उदार हृदय वालों के लिए तो सारी पृथ्वी ही कुटुंब है। जब यह भावना जन-जन के हृदय में घर कर जाती है तो मनुष्य सारी सृष्टि के प्राणियों के हित के लिए चिंतन करने लगता है। आज ऐसी ही भावना की आवश्यकता अनुभव हो रही है। समाज में सर्वत्र स्वार्थ, अशांति, अराजकता, कलह, हिंसा, ईर्ष्या, द्वेष, अन्याय दृष्टिगोचर हो रहा है। इनसे बचने के लिए परोपकार ही सर्वाधिक कारगर उपाय है।
परोपकार की भावना स्वयं में अत्यंत पवित्र है, किंतु कुछ लोग परोपकार के आवरण के पीछे स्वार्थ पूर्ति करते हैं। राजनीतिक नेता ‘गरीबी हटाओ’ के नारे की आड़ में मात्र अपनी गरीबी मिटाने की चिंता करते हैं, ‘मंडल आयोग’ द्वारा अनुसूचित जातियों व जनजातियों के लिए स्थान आरक्षित करने की अपेक्षा अपना वोट बैंक पक्का करते हैं, किसी के घर या दुकान में दुर्घटना होने पर उसकी सहायता करने की अपेक्षा बचा-खुचा माल भी उठाकर ले जाते हैं, दिखावे के लिए औषधालय बनवाते हैं किंतु वास्तव में उद्देश्य आयकर से छूट पाना होता है। अतः आज परोपकार का स्वरूप बदलता जा रहा है। इसका मूल कारण भौतिक सुखों का आकर्षण है। निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि आज के वैज्ञानिक युग में जन-जन में परोपकार की भावना का जगाना अत्यंत आवश्यक है। इसके बिना न मानव जाति की रक्षा संभव है, न राष्ट्र की सुख-संपन्नता। अतः परोपकार की भावना ही विश्व को तृतीय विश्वयुद्ध की विभीषिका से त्राण दिला सकती है। इसीलिए राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त जी के शब्दों में –
“मरा वही नहीं कि जो, जिया न आपके लिए।
वही मनुष्य है कि जो, मरे मनुष्य के लिए॥”
विद्यार्थी और राजनीति
‘विद्यार्थी’ शब्द का अर्थ है-विद्या प्राप्त करने वाला। विद्या जीवन का एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण अंग है। जो व्यक्ति विद्या प्राप्त करता है. विदयार्थी कहलाता है। विदयार्थी-जीवन मनुष्य के जीवन का निर्माणकाल होता है। ‘राजनीति’ से अभिप्राय है-राजकाज चलाने की नीति। यद्यपि प्राचीनकाल में राजनीति का क्षेत्र केवल शासकों, लेखकों, दार्शनिकों तक ही सीमित था, किंतु वर्तमानकाल में यह काफ़ी विस्तृत हो गया है। अब इसमें शासन की प्रत्येक गतिविधि को जानने का अधिकार सर्वसाधारण को भी दिया गया है।
यदि दोनों शब्दों को एक साथ रख दिया जाए तो ‘विद्यार्थी और राजनीति’ एक जटिल प्रश्न बनकर उभरता है। विद्यार्थी का राजनीति में क्या काम? विद्यार्थी को विद्या प्राप्ति के लिए सरस्वती के मंदिर अर्थात् विद्यालय में जाना चाहिए न कि राजनीति के अखाड़ों में। राजनीति का कीचड़ छात्रों को उनके वास्तविक लक्ष्य से दूर ले जाएगा। साथ ही अनुभवहीन विद्यार्थी देश की राजनीति में भाग लेकर देश की नौका को भी मंझधार में डुबो देंगे। इस प्रकार की चर्चा आम सुनाई पड़ती है, किंतु इसके विपरीत विचार प्रस्तुत करने वाले लोगों की भी कमी नहीं जो यह कहते हैं कि विद्यार्थी ही देश के वास्तविक कर्णधार हैं। उनमें कुछ कर गुजरने की ललक होती है।
अतः उन्हें राजनीति में सक्रिय भाग लेना चाहिए। कुछ ऐसे विद्वान भी हैं जो यह कहते हैं कि विद्यार्थी को सैद्धांतिक राजनीति का अध्ययन तो करना चाहिए किंतु व्यावहारिक रूप से राजनीति में नहीं आना चाहिए। इस प्रकार विभिन्न मतों के कारण आधुनिककाल में एक विवाद उत्पन्न हो गया है। अतः यह जानना अत्यंत आवश्यक हो जाता है कि विदयार्थी और राजनीति आपस में कितनी गहराई तक जुड़े हैं? विद्यार्थी का राजनीति में भाग लेना सही है या गलत? यदि सही है तो किस सीमा तक? यदि गलत है तो क्यों? राजनीति में विदयार्थी के प्रवेश को कैसे नियंत्रित किया जा सकता है? इन प्रश्नों का उत्तर विभिन्न मतों को जानकर ही पाया जा सकता है।
जो विचारक विद्यार्थी की राजनीति में सक्रियता के विषय में सहमत हैं, उनके मतानुसार यह निम्न कारणों से सही है –
(क) इतिहास साक्षी है कि विभिन्न क्रांतियों की सफलता में विद्यार्थियों का अद्वितीय योगदान रहा है। भारत की स्वाधीनता के लिए जिन नेताओं ने अपने जीवन का बलिदान दिया, उनमें से अधिकांश विद्यार्थीकाल से ही राजनीति में भाग लेने लगे थे। फ्रांस, अमेरिका, इंडोनेशिया की क्रांतियों में भी विद्यार्थी वर्ग ने उल्लेखनीय भूमिका निभाई है।
(ख) विदयार्थी देश के भावी कर्णधार हैं। वे राष्ट्र की रीढ़ हैं। यदि वे राजनीति से पृथक् रहेंगे तो देश की समस्याओं से भी अनभिज्ञ
रहेंगे। ऐसी स्थिति में समस्याओं के समाधान में उनका सहयोग दुर्लभ हो जाएगा।
(ग) आज चहुँ ओर भ्रष्टाचार, स्वार्थ, अन्याय का बोलबाला है। राजनीतिज्ञ अपनी कुर्सी को बचाने की खातिर प्रत्येक अनुचित कार्य
करने को भी तैयार हो जाते हैं। ऐसे विषाक्त वातावरण, स्वार्थ की नींव पर खड़े सत्ता के ढाँचे को बदलने का साहस केवल विद्यार्थियों में ही है। इसीलिए कवि गोपालशरण सिंह ने कहा है –
“है बस छात्रों हाथ तुम्हारे ही गति उसकी।
अवलंबित है तथा तुम्हीं पर उन्नति उसकी॥
अपनी प्राणप्रिय जाति के तुम्ही एक आधार हो।
कर भी सकते केवल उसका बेड़ा पार हो॥”
जो विद्वान विद्यार्थी का राजनीति में प्रवेश पूर्णतया गलत मानते हैं, वे अपने मत के समर्थन में निम्नलिखित तर्क देते हैं –
(क) आज की राजनीति भ्रष्टाचार का पर्याय है विद्यार्थीकाल में ही राजनीति में प्रवेश लेने से विद्यार्थी के मन-मस्तिष्क की गीली पीली मिट्टी पर भ्रष्ट आचरण, कुसंस्कारों के बीज पड़ जाते हैं। ऐसे छात्र भविष्य में देश-विकास की अपेक्षा देश-विनाश ही अधिक करते हैं।
(ख) राजनीति एक ऐसा अंधकूप है जिसमें पड़ जाने से विद्यार्थी की चेतना, मेधा कुंठित हो जाती है। इस प्रकार विद्यार्थीकाल में ही राजनीति में भाग लेने से छात्र अपना समुचित विकास नहीं कर सकता।
(ग) बर्नाड शॉ ने अपनी पुस्तक में लिखा था-“राजनीति दुष्ट प्रवृत्ति के व्यक्तियों के लिए अंतिम शरणालय है।” दुष्ट व्यक्तियों की संगति निर्मल प्रवृत्ति के व्यक्ति को भी दुष्ट बना डालती है अतः राजनीति में भाग लेने वाले छात्र राजनैतिक दलों के बहकाने में आकर रेलों-बसों को जला डालते हैं, पुलिस पर पथराव करते हैं, रेल की पटरियाँ उखाड़ देते हैं, सार्वजनिक स्थलों पर तोड़-फोड़ करते हैं। फलस्वरूप महत्त्वाकांक्षी राजनीतिज्ञों के हाथों की कठपुतली बनकर छात्र देश को अत्यंत हानि पहुँचाते हैं।
(घ) जिन चिंतकों के द्वारा इतिहास के उदाहरण देकर राजनीति में छात्रों के प्रवेश को उचित ठहराया गया है, वे यह भूल जाते हैं कि तत्कालीन राजनीतिक परिस्थितियाँ वर्तमान परिस्थितियों से भिन्न थीं। तब राजनीतिक गतिविधियों का स्पष्ट लक्ष्य था-विदेशी सत्ता को उखाड़ फेंकना। वर्तमान में राजनीतिज्ञ एक दिशाहीन दौड़ में शामिल हैं। उस अंधाधुंध दौड़ में विद्यार्थी को भी शामिल कर लेना उसे पथभ्रष्ट करने के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं।
उपरोक्त दोनों मतों के अध्ययन के उपरांत पता चलता है कि दोनों ही पक्षों में वजन है। हम विद्यार्थी को राजनीति से पूर्णतः पृथक् भी नहीं रख सकते और पूर्णतः सक्रियता को भी उचित नहीं समझते। अतः उचित यह होगा कि मध्यमार्ग अपनाया जाए। विद्यार्थी को सैद्धांतिक राजनीति का ज्ञान तो प्राप्त करना चाहिए, किंतु व्यावहारिक राजनीति में कम भाग लेना चाहिए। राजनीति में भाग लेते समय छात्र को निरपेक्ष तथा तटस्थ बने रहना चाहिए। अपनी अध्ययन-साधना में पूर्ण मनोयोग से जुटे रहकर भी राजनीतिक गतिविधियों की जानकारी रखनी चाहिए।
यह जानकारी दैनिक समाचार-पत्रों, पत्रिकाओं, रेडियो, टेलीविजन के समाचारों द्वारा प्राप्त की जा सकती है। इसी सीमा तक राजनीति में भाग लेकर छात्र अपने लक्ष्य को भी पूर्ण कर पाएंगे और राजनीति से पूर्णत: अछूते भी नहीं रहेंगे। निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि राजनीति में आंशिक क्रियाशीलता ही छात्र के लिए उचित है, पूर्ण सक्रियता नहीं। यदि छात्र पूर्ण रूपेण राजनीति में शामिल होगा तो इससे वह स्वयं के लिए, राष्ट्र के लिए, जाति के लिए विनाश का द्वार खोलेगा। अतः निर्णय स्वयं छात्र पर.ही छोड़ा जा सकता है कि वे अपनी शक्ति का उचित प्रयोग करना चाहते हैं या अनुचित?
जब आवे संतोष धन, सब धन धूरि समान
मानव एक संवेदनशील प्राणी है। वह सदैव अपनी इच्छापूर्ति में लगा रहता है, मगर इच्छाएँ कभी पूर्ण नहीं होती। इच्छाओं, आकांक्षाओं का एक अनवरत क्रम चलता रहता है। यह आकांक्षाएँ ही दुखों का कारण हैं। महात्मा बुद्ध ने कहा था-‘इच्छाएँ दुखों का मूल कारण हैं’ अर्थात् सच्चा सुख पाने के लिए आवश्यक है- इच्छाओं का दमन किया जाए। इसी कारण भारतीय संस्कृति व दर्शन के अनुसार ‘संतोष’ के अपनाने पर बल दिया गया है। संतोष-धन को पाकर इच्छाओं से छुटकारा संभव है।
अब प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि संतोष क्या है? ‘महोपरिषद् के संतोष है।’ इससे स्पष्ट है कि संतोष मनुष्य की वह दशा है जिसमें वह अपनी ‘वर्तमान अवस्था’ से तृप्त रहता है और उससे अधिक की कामना नहीं करता। हाँ, यह बात अवश्य ध्यान रखने योग्य है कि वर्तमान अवस्था’ उचित साधन, पवित्र कर्म, परोपकार से प्रभावित हो अन्यथा व्यक्ति कदापि अपने विकास के लिए प्रयत्न ही नहीं करेगा। मनुष्य प्रयत्न तो अवश्य करें किंतु परिणाम मनोनुकूल न मिलने पर भी उद्विग्न न हों अपितु प्रयत्नरत रहें। जैसा कि यूनानी दार्शनिक ने कहा है-‘जो घटित होता है, उससे मैं संतुष्ट हूँ, क्योंकि मैं जानता हूँ कि परमात्मा का चयन मेरे चयन से अधिक श्रेष्ठ है।’
संतोष जीवन में सुख-शांति का मूल मंत्र है। संतोष से मानव-मन में कुंठा, हीनभावना, ईर्ष्या-द्वेष, घृणा आदि विकारात्मक दानव अपना घर नहीं कर सकते। संतोष वह जड़ी-बूटी है जो अशांत मस्तिष्क को स्वस्थ बनाता है, मानव परिस्थितियों की दासता त्यागकर उन पर स्वामित्व स्थापित कर लेता है। कबीर ने भी कहा है –
चाह कई चिंता मिटी, मनुवा बेपरवाह।
जिसको कुछ न चाहिए, सोई साहंसाह॥
संतोषी व्यक्ति तृष्णाओं पर विजय प्राप्त करता है जिससे सहयोग, भ्रातृत्व, राष्ट्र-प्रेम आदि सद्गुण विकसित होते हैं।
“फिरत करो अते वंड के छक्कों ।”
इसका अभिप्राय है कि कर्म करो और बांटकर खाओ। संतोष रूपी धन प्राप्त हो जाने से मनुष्य की आँखों में एक अनोखी चमक आ जाती है; अधरों पर सदैव मुसकान खेलती रहती है; अंग-अंग कर्तव्य-पालन में लगा रहता है।
इसके विपरीत असंतोष हर प्रकार के दुख, वैमनस्य, क्लेश का कारण है। असंतोषी, इच्छाओं के एक ऐसे कीचड़ में धंस जाता है वहाँ से निकलना स्वयं उसके लिए ही असंभव-सा हो जाता हैं असंतोषी मनुष्य को अतृप्त भावनाएँ लकड़ी में लगी दीमक की भाँति भीतर ही भीतर खोखला करती जाती हैं। ऐसे व्यक्ति सदैव निन्यानवे के फेर में पड़े रहते हैं। असंतोष न केवल बुराइयों का जनक ही है अपितु शारीरिक, मानसिक कष्ट की खान भी है।
वर्तमान युग में संतोष की बहुत अधिक आवश्यकता है। आज सर्वत्र अराजकता, अतृप्ति, वैमनस्य का बोलबाला है। ऐसे वातावरण में संतोष रूपी वास्तविक धन ही सच्ची शांति ला सकता है। संतोष मानव को समझाता है –
“रूखी सूखी खाय के, ठंडा पानी पीव।
देख परायी चूपड़ी, मत ललचाए जीव॥”
आधुनिककाल में व्यक्ति पैसे की एक ऐसी अंधी दौड़ लगा रहा है कि साधारण व्यक्ति लखपति बनना चाहता है, लखपति करोड़पति बनने के लिए उत्सुक है और करोड़पति अरबपति बनने का स्वप्न संजोए है। ऐसे में यदि संतोष का दामन थाम लिया जाए तो सब समस्याओं का समाधान हो सकता है। कबीर ने कहा है –
साँई इतना दीजिए, जा मे कुटुंब समाय।
मैं भी भूखा न रहूँ साधु न भूखा जाय॥
अंत में कहा जा सकता है कि संतोष धन सब प्रकार के धन से श्रेष्ठ है। इस धन के समक्ष गौ रूपी धन, घोड़ों रूपी धन, हाथी रूपी धन अथवा हीरे-जवाहरात सब नगण्य हैं, धूल के समान हैं। इसीलिए रहीम कवि ने स्पष्टतः कहा है –
‘गोधन, गजधन, बाजिधन
और रतन धन खान।
जब आवे संतोष धन,
सब धन धूरि समान॥
शिक्षा और परीक्षा
अथवा
परीक्षा के कठिन दिन
शिक्षा वह प्रकाश स्तंभ है जो मानव-जीवन का पथ-प्रदर्शन करता है। शिक्षा-शांति प्रदान करने का साधन है। सर्वांगीण विकास का परिचायक है। शिक्षाविहीन मनुष्य पशु-तुल्य कहा गया है। वैसे तो शिक्षा जीवनभर चलने वाली प्रक्रिया है। औपचारिक और अनौपचारिक स्थितियों में व्यक्ति अनेक बातों को सीखता है। जीवन में नए प्रयोग व्यवहार में परिवर्तन ला देते हैं। व्यक्ति अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने का प्रयास करता है। लक्ष्य प्राप्त हो पाया या नहीं, व्यक्ति में योग्यता किस स्तर तक आई ? यह जाँच परीक्षा द्वारा की जाती है। ‘परीक्षा’ एक भय से भरा छोटा-सा नाम। देखने में यह जितना छोटा है, भय का संचार करने में उतना ही सशक्त।
परीक्षा एक हौवा बनकर विद्यार्थियों के मन-मस्तिष्क पर छा जाती है। परीक्षार्थी की आँखों से नींद गायब हो जाती है। सिर दर्द से फटने लगता है। मनोरंजन के सभी साधन छूट जाते हैं। केवल पुस्तक मेज़ पर होती है और परीक्षार्थी कुरसी पर। छात्र बार-बार चाय या कॉफ़ी पीकर, निद्रादेवी को अलविदा करके रटू तोते की भाँति याद करने में जुटे रहते हैं। कुछ छात्र नकल के नए-नए तरीके सोचते हैं और नकल की पर्चियाँ तैयार करते रहते हैं।
स्वाभाविक रूप से यह प्रश्न उठता है कि जब परीक्षा इस कदर भयभीत करने वाली है तो इसकी आवश्यकता क्या है? इसका कारण है-परीक्षा का महत्त्व। परीक्षा ही वह कसौटी है जिस पर छात्र की योग्यता को परखा जाता है। शिक्षा को सरल बनाने के उद्देश्य से इसे विभिन्न चरणों में बाँटा गया है। यह जाँच किए बिना कि छात्र एक कक्षा के पाठ्यक्रम का ज्ञान पूर्णतया पा चुका है या नहीं, उसे अगली कक्षा में कैसे भेजा जा सकता है? परीक्षा के द्वारा छात्रों में प्रतिस्पर्धा का भाव अध्ययन के प्रति रुचि, सजगता उत्पन्न की जा सकती है। प्रायः देखा जाता है कि जिन विषयों की परीक्षा नहीं होती, छात्र उनमें रुचि लेना भी बंद कर देते हैं।
कहते हैं-‘पुनरावृत्ति स्मृति की जनक है।’ अत:ज्ञान मस्तिष्क में स्थायी तभी होगा जब इसकी पुनरावृत्ति होगी। पुनरावृत्ति परीक्षा के भय से ही होती है। परीक्षा के भय से छात्र अपना पाठ्यक्रम समय पर कंठस्थ करना चाहता है। परीक्षा केवल छात्र की योग्यता, पढ़ाने के ढंग का अंकन भी करती है। परीक्षा के माध्यम से शिक्षक यह जान पाते हैं कि छात्र किस विषय को पूरी तरह नहीं समझ पाए ? किस स्थान पर कमी रह गई ? कहाँ-कहाँ सुधार की आवश्यकता है ? आदि। इसी उद्देश्य से प्राचीनकाल में भी आचार्य अपने शिष्यों की समय-समय पर परीक्षा लेते थे। द्रोणाचार्य द्वारा ली गई पांडवों-कौरवों की निशानेबाजी की परीक्षा को कौन नहीं जानता जिसमें एकाग्रचित अर्जुन सफल रहा।
वर्तमान समय में भी परीक्षा के महत्त्व को नकारा नहीं जा सकता, किंतु हमारी परीक्षा पद्धति दोषपूर्ण है। यह पद्धति रटने की प्रवृत्ति को बढ़ावा देती है, छात्र पूरा वर्ष परिश्रम करने की अपेक्षा परीक्षा निकट आने पर कुछ गिने-चुने प्रश्न रट लेते हैं। यदि सौभाग्य से वही प्रश्न परीक्षा में पूछ लिए जाए तो वारे-न्यारे।
परीक्षा-पद्धति का दूसरा दोष यह है कि इसमें केवल 33% अंक पाने वाले छात्र को भी उत्तीर्ण घोषित कर दिया जाता है। इसका अभिप्राय यह हुआ कि दो-तिहाई योग्यता की उसमें अभी भी कमी है।
तीसरे, इस पद्धति से लिखित रूप में तो जाँच कर ली जाती है, किंतु इससे व्यावहारिक ज्ञान की जाँच नहीं हो पाती।
चौथे, यह पद्धति जहाँ परीक्षा का अत्यधिक भय उपजाकर स्वास्थ्य को हानि पहुँचाती है वहीं अनैतिक भावना को प्रोत्साहन भी देती है। कई बार छात्र निरीक्षक को छुरे की नोंक पर रखकर नकल करते हैं।
पाँचवें, इस परीक्षा-पद्धति में केवल वार्षिक परीक्षा को ही ध्यान में रखा जाता है। आंतरिक परीक्षा को कोई महत्त्व नहीं दिया जाता। इससे एक तो छात्रों में हीन भावना जन्म लेती है, साथ ही परस्पर ईर्ष्या, द्वेष, घृणा की भावना भी पनपती है। स्वस्थ वातावरण के अभाव में छात्र की समग्र चेतना कुंठित हो सकती है। इसीलिए डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने एक बार कहा था –
“हमें विश्वास हो गया है कि यदि हमें कोई सुधार सुझाना है तो वह परीक्षा से संबंधित होना चाहिए।”
अतः परीक्षा पद्धति में सुधार लाने के लिए सबसे पहले हमें परीक्षा का भय मिटाना होगा। ऐसा वातावरण तैयार किया जाए जिसमें छात्र हंसी-खुशी परीक्षा के लिए उद्धत हों। केवल वार्षिक परीक्षा को ही ध्यान में न रख कर, आंतरिक परीक्षा को भी समान महत्त्व देना चाहिए तभी छात्र पूरा वर्ष दिल लगाकर पढ़ेंगे। प्रश्न-पत्र में वस्तुनिष्ठ प्रश्न पूछे जाने चाहिए जो सारे पाठ्यक्रम पर आधारित हों। इससे रटने की प्रवृत्ति मंद होगी। परीक्षा प्रश्न-पत्र की जाँच के लिए पहले एक आदर्श-पत्र भी तैयार किया जाना चाहिए। इससे परीक्षक के व्यक्तिगत दृष्टिकोण का प्रभाव छात्रों के अंकों पर नहीं पड़ना चाहिए। वैसे अच्छा तो यह होगा कि छात्रों को वर्ष-भर जो प्रतिदिन गृहकार्य दिया जाता है, उससे भी अंक दिए जाए एवं वार्षिक परीक्षा में इन्हें भी ध्यान में रखा जाए। इन उपायों से विद्यार्थी की पूर्ण योग्यता की जाँच भी की जा सकेगी और उन्हें परीक्षा का भूत भी नहीं सताएगा।
वास्तव में यदि देखा जाए तो शिक्षा कभी समाप्त नहीं होती। परीक्षा भी निरंतर चलती रहती है। फिर भी एक विद्यार्थी के लिए यह विशेष महत्त्व रखती है। अतः परीक्षा ढंग से नियोजित होनी चाहिए कि छात्र परीक्षा के दिनों को अपने गले का फंदा समझने की अपेक्षा केवल योग्यता मापक ही मानें।
साहित्य और समाज
प्रसिद्ध पाश्चात्य विद्वान मैथ्यू आर्नल्ड ने साहित्य को समाज का दर्पण कहा है। वास्तव में साहित्य से हम समाज के विषय में वह सब कुछ जान सकते हैं जो प्रायः चर्मचक्षुओं से संभव नहीं। साहित्य जीवन की अभिव्यक्ति है और सामाजिक जीवन ही साहित्य को सामग्री प्रदान करता है। इसीलिए हम किसी भी समाज के विषय में जानकारी उसके साहित्य को पढ़कर प्राप्त कर सकते हैं। साहित्य का अवलोकन करने से हमें समाज के आचार-विचार, उतार-चढ़ाव, सभ्यता-संस्कृति का स्पष्ट परिचय मिल जाता है।
साहित्यकार समाज का द्रष्टा व स्रष्टा है। वह जो कुछ देखता है, सुनता है, उसी के अनुरूप रचना करता है कोई साहित्यकार अपने युग से, आँखें मूंदकर रचनाएँ नहीं लिख सकता है। इसीलिए हजारीप्रसाद द्विवेदी ने कहा है-‘साहित्य केवल बुद्धि विलास नहीं है। यह जीवन की वास्तविकता की उपेक्षा करके जीवित नहीं रह सकता।’ इसीलिए समाज में होने वाली सभी घटनाओं का प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से साहित्य पर भी प्रभाव अवश्य पड़ता है।
यदि हम हिंदी साहित्य के इतिहास पर दृष्टि डालें तो ज्ञात होगा कि वीरगाथाकाल में तत्कालीन युद्धों का ही अधिक वर्णन मिलता है, जबकि भक्तिकाल में साहित्य भक्तिकाल से परिपूर्ण है। इसी प्रकार रीतिकाल का साहित्य उस समय के समाज की विलासिता का द्योतक है। आधुनिककाल में यथार्थ-प्रधान साहित्य रचा जा रहा है। क्या इन सभी के अध्ययन के उपरांत भी साहित्य पर समाज के प्रभाव को नकारा जा सकता है? इसीलिए कहा गया है –
“अंधकार है वहीं, जहाँ आदित्य नहीं है।
मुर्दा है वह देश, जहाँ साहित्य नहीं है।”
यह सही है कि प्रत्येक देश अथवा समाज का साहित्य सामाजिक परिस्थितियों से प्रभावित होता है, किंतु जहाँ साहित्य समाज से लेने की क्षमता रखता है, वहीं काफ़ी कुछ देता भी है। साहित्य में जो शक्ति छिपी है, वह तोप, तलवार अथवा बम के गोलों में भी नहीं होती। साहित्य अपनी विश्वशक्ति से समाज को जिस दिशा में चाहे मोड़ सकता है। साहित्य समाज का सूक्ष्मता से वर्णन करके उसे पतन के गड्ढे में गिरने से बचा सकता है, उन्नति के शिखर पर पहुँचा सकता है। लोग जिस प्रकार का साहित्य पढ़ते हैं, उनकी मानसिकता भी उसी के अनुरूप हो जाती है। जैसे यह सर्वविदित तथ्य है कि भारत को स्वतंत्र कराने के लिए राष्ट्रीय आंदोलन में साहित्य ने कितनी अहम् भूमिका निभाई थी। बंकिमचंद्र चटर्जी द्वारा रचित ‘आनंदमठ’ के ‘वंदे-मातरम्’ गीत ने जन-जन में राष्ट्रवाद का मंत्र फूंक दिया था। इस प्रकार साहित्य व समाज में चोली-दामन का साथ है।
साहित्य में समाज का मार्गदर्शन करने की अनुपम क्षमता विद्यमान है। यह मानव की मनोवृत्तियों में गहरे पैठकर उन्हें प्रभावित करता है। यह जीवन की ऊबड़-खाबड़, टेढ़े-मेढ़े मार्ग पर अंधकार में मार्ग खोजने के लिए प्राणी का दीपक की भाँति मार्ग प्रशस्त करता है। यह सामाजिक भावनाओं का सरोवर है, किंतु इस सरोवर में कमल तभी खिल सकते हैं जब साहित्यकार अपना कर्तव्य उचित रूप से निभायें। यदि साहित्यकार यथार्थ वर्णन के साथ-साथ उचित मात्रा में आदर्श का भी समावेश करें तो साहित्य की वरदायिनी शक्ति द्विगुणित हो सकती है। इसीलिए तो कहा गया है –
मनोरंजन न केवल कवि का कर्म होना चाहिए।
उसमें उचित उपदेश का भी मर्म होना चाहिए।
निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि साहित्य व समाज एक दूसरे के पूरक हैं। साहित्य एक ऐसा तिकोना दर्पण है जिसके एक कोने में हमें अतीत, दूसरे में वर्तमान व तीसरे में भविष्य के दर्शन होते हैं। साहित्य के द्वारा ही समाज में सत्यम्, शिवम्, सुंदरम् का समन्वित रूप प्रतिष्ठित किया जा सकता है।
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