स्वस्थ युवाओं से ही बनेगा स्वस्थ राष्ट्र
किसी भी राष्ट्र की स्वस्थ युवाशक्ति उस राष्ट्र को गौरवान्वित कर देती है, परंतु बीमार या अस्वस्थ शक्ति उस राष्ट्र की प्रगतिशीलता पर लाल निशान लगा देती है। हमने स्वतंत्रता का संग्राम स्वस्थ युवाशक्ति के द्वारा ही लड़ा है। स्वामी विवेकानंद युवा थे। खुदीराम बोस, वीर सुभाष, भगत सिंह, आज़ाद, रानी लक्ष्मीबाई, तात्या टोपे युवा ही थे। इन्होंने अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति के द्वारा अंग्रेज़ों के द्वारा किए अमानवीय, पशुतापूर्ण प्रहारों को सहा तथा मातृभूमि के लिए अपना बलिदान भी दिया है।
ये सब देशप्रेमी युवा ही थे। इन्होंने राष्ट्र के साथ स्वयं को महिमामंडित किया है। स्वस्थ, राष्ट्रप्रेमी युवाओं को हर राष्ट्र महिमामंडित करता है। यह स्वस्थ युवाओं की दृढ़ इच्छा शक्ति द्वारा ही संभव होता है। स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि राष्ट्र की प्रगतिशीलता, वहाँ के युवाओं की संवेदनशीलता, उनका श्रेष्ठ बौद्धिक विकास, सांस्कृतिक एवं धार्मिक मान्यताओं एवं आस्थाओं के साथ सामाजिक व आर्थिक विकास पर निर्भर है। किसी लक्ष्य को पाने के लिए दृढ़ इच्छाशक्ति या संकल्पशक्ति की आवश्यकता होती है। इसी के सहारे हमने आजादी तो पाई, परंतु आज़ाद होने के बाद सुग्रीव की तरह हम भोग में लिप्त हो गए।
हमें लक्ष्मण के समान मार्गदर्शक नहीं मिल पाया। भौतिकवाद या भोगवाद हमारे परवान चढ़ गया। दृढ़ इच्छाशक्ति की प्राप्ति के लिए हमें स्वस्थ मन व शरीर चाहिए। वह आज दिखाई नहीं देता है। बाबा रामदेव जी ने शरीर व मन को स्वस्थ रखने के लिए योग व प्राणायाम बताया है। यह हमारे ऋषि-मुनियों की देन है, जिन्हें हम भूल गए थे। राष्ट्र निर्माण का काम स्वस्थ युवाओं के द्वारा ही संभव होता है। ये विचार स्वामी विवेकानंद के हैं। इसकी सफलता ही छात्र जीवन को सुखद एवं सुंदर बनाकर भावी स्वस्थ नागरिकों का निर्माण करेगी। इससे राष्ट्र को भी दिशा मिलेगी तथा स्वस्थ राष्ट्र का निर्माण होगा। सरकार ने दो साल के लिए ‘स्वस्थ राष्ट्र का निर्माण स्वस्थ युवाओं से’ को राष्ट्रीय सेवा योजना में सम्मिलित किया है।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद हमने समाजवाद की कल्पना की थी, परंतु यह दृढ़, इच्छाशक्ति के अभाव से लुप्तप्राय हो गई है। हमारे स्वार्थ एवं लोभ ने भारत को गुलाम बना दिया था परंतु जब इनकी जगह त्याग व बलिदान ने ली तो भारत आज़ाद हो गया। दुर्भाग्य है कि हमने फिर से उसी लोभ व स्वार्थ को अंगीकार कर लिया। इसके कारण हमारा राष्ट्र भटकाव की स्थिति में आ गया है। यह भटकाव क्या हमें फिर से गुलामी की ओर ले जाएगा? अभी अमेरिका के साथ परमाणु अप्रसार संधि पर समझौता हुआ है।
क्या इससे भारत के स्वतंत्र रूप से परमाणु शक्ति के विकास पर अवरोध पैदा नहीं होगा? क्या हम फिर से पोखरण के समान विस्फोट स्वतंत्र रूप से कर सकेंगे? क्या यह समझौता हमारी स्वतंत्र परमाणु प्रसार नीति पर लाल लकीर तो नहीं खींच देता है? हम गुट निरपेक्ष देशों के पुरोधा रहे हैं। क्या हम इन राष्ट्रों के साथ स्वतंत्र निर्णय ले सकेंगे? क्या यह हमारी दृढ़ इच्छाशक्ति के अभाव को प्रदर्शित नहीं करता? क्या यह सब लोभ व स्वार्थ से प्रेरित नहीं है ? ये सारे प्रश्न सहज रूप से देश के चिंतनशील व्यक्ति के मस्तिष्क पटल पर उभरते हैं। इनका समाधान कौन करेगा।
आज का युग अर्थ प्रधान है-वह भौतिकवाद की एकाकी राह पर चल रहा है। वह चेतना के संवेदनशीलता से परे हैं, जो हमें चरित्रवान एवं अनुशासित रखता है। इन दोनों के युग्म से ही व्यक्तित्व का विकास होता है। व्यक्तित्व का विकास निर्माण से संभव है। स्व-निर्माण भौतिकवाद के श्रेष्ठ मस्तिष्क या प्रतिभा या अध्यात्म की संवेदनशील चरित्रनिष्ठा से ही संभव है। इससे कम में क या हम व्यक्ति के निर्माण की कल्पना कर सकते हैं? आज के अर्थ युग में युवा मस्तिष्क में यह बातें क्यों उभर रही हैं? वह तो बिना लगाम के भाग रहा है। लगाम तो अध्यात्म ही लगा सकता है, जो त्याग व बलिदान से प्रेरित है परंतु आज का युवा-स्वामी विवेकानंद जी द्वारा बताई राष्ट्र के निर्माण की शिक्षा पर चलने को तैयार दिखाई नहीं देता। बातों को ज़रूर सुन लेता है तथा उसकी प्रशंसा भी करता है।
बौद्धिक प्रतिभा एवं आर्थिक संपन्नता आज के युग की माँग है। भारत की युवा प्रतिभाएँ अपने बौद्धिक विकास के कारण अमेरिका, कनाडा, फ्रांस, इंग्लैंड तथा जापान आदि राष्ट्रों में कार्यरत हैं तथा उनकी माँग विदेशों में बढ़ती जा रही है। 15 से 35 वर्ष की आयु ही युवावस्था कहलाती है।
इसके बाद प्रौढ़ावस्था आ जाती है। युवावस्था में हमारे शरीर का विकास होता है तथा हमारी अंतःस्रावी ग्रंथियाँ सजग होती हैं। शरीर पुष्टता को प्राप्त होता है। यदि इससे प्राप्त शक्ति का हम सदुपयोग करते हैं तो हमारी शक्ति स्थिर रहती है अन्यथा इस शक्ति का दुरुपयोग, हमारे शरीर का संहारक बन जाता है। आज का युवा इस शक्ति के दुरुपयोग में लगा हुआ है। वह नशीले पदार्थों के द्वारा इसे नष्ट कर रहा है। नशीले पदार्थों का मन व मस्तिष्क पर कुप्रभाव पड़ता है। इससे शरीर भी प्रभावित होता है।
नशीले पदार्थों के सेवन से हमारा मन, मस्तिष्क व शरीर उसके (नशीले पदार्थों के) प्रभाव में आ जाता है। हमारी अंत:स्रावी ग्रंथियों पर भी कुप्रभाव पड़ता है। इससे युवाओं की यौवन शक्ति का ह्रास होता है तथा उनमें बुढ़ापे के लक्षण दिखाई देने लगते हैं। वह बीमारियों का शिकार हो जाता है। यह हमारी गलत आदतों का परिणाम है। अच्छी आदतें हमें संस्कारित करती हैं इससे हमारे अंदर संस्कार पैदा होते हैं, संस्कारों से संस्कृति का निर्माण होता है।
ये सब देशप्रेमी युवा ही थे। इन्होंने राष्ट्र के साथ स्वयं को महिमामंडित किया है। स्वस्थ, राष्ट्रप्रेमी युवाओं को हर राष्ट्र महिमामंडित करता है। यह स्वस्थ युवाओं की दृढ़ इच्छा शक्ति द्वारा ही संभव होता है। स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि राष्ट्र की प्रगतिशीलता, वहाँ के युवाओं की संवेदनशीलता, उनका श्रेष्ठ बौद्धिक विकास, सांस्कृतिक एवं धार्मिक मान्यताओं एवं आस्थाओं के साथ सामाजिक व आर्थिक विकास पर निर्भर है। किसी लक्ष्य को पाने के लिए दृढ़ इच्छाशक्ति या संकल्पशक्ति की आवश्यकता होती है। इसी के सहारे हमने आजादी तो पाई, परंतु आज़ाद होने के बाद सुग्रीव की तरह हम भोग में लिप्त हो गए।
हमें लक्ष्मण के समान मार्गदर्शक नहीं मिल पाया। भौतिकवाद या भोगवाद हमारे परवान चढ़ गया। दृढ़ इच्छाशक्ति की प्राप्ति के लिए हमें स्वस्थ मन व शरीर चाहिए। वह आज दिखाई नहीं देता है। बाबा रामदेव जी ने शरीर व मन को स्वस्थ रखने के लिए योग व प्राणायाम बताया है। यह हमारे ऋषि-मुनियों की देन है, जिन्हें हम भूल गए थे। राष्ट्र निर्माण का काम स्वस्थ युवाओं के द्वारा ही संभव होता है। ये विचार स्वामी विवेकानंद के हैं। इसकी सफलता ही छात्र जीवन को सुखद एवं सुंदर बनाकर भावी स्वस्थ नागरिकों का निर्माण करेगी। इससे राष्ट्र को भी दिशा मिलेगी तथा स्वस्थ राष्ट्र का निर्माण होगा। सरकार ने दो साल के लिए ‘स्वस्थ राष्ट्र का निर्माण स्वस्थ युवाओं से’ को राष्ट्रीय सेवा योजना में सम्मिलित किया है।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद हमने समाजवाद की कल्पना की थी, परंतु यह दृढ़, इच्छाशक्ति के अभाव से लुप्तप्राय हो गई है। हमारे स्वार्थ एवं लोभ ने भारत को गुलाम बना दिया था परंतु जब इनकी जगह त्याग व बलिदान ने ली तो भारत आज़ाद हो गया। दुर्भाग्य है कि हमने फिर से उसी लोभ व स्वार्थ को अंगीकार कर लिया। इसके कारण हमारा राष्ट्र भटकाव की स्थिति में आ गया है। यह भटकाव क्या हमें फिर से गुलामी की ओर ले जाएगा? अभी अमेरिका के साथ परमाणु अप्रसार संधि पर समझौता हुआ है।
क्या इससे भारत के स्वतंत्र रूप से परमाणु शक्ति के विकास पर अवरोध पैदा नहीं होगा? क्या हम फिर से पोखरण के समान विस्फोट स्वतंत्र रूप से कर सकेंगे? क्या यह समझौता हमारी स्वतंत्र परमाणु प्रसार नीति पर लाल लकीर तो नहीं खींच देता है? हम गुट निरपेक्ष देशों के पुरोधा रहे हैं। क्या हम इन राष्ट्रों के साथ स्वतंत्र निर्णय ले सकेंगे? क्या यह हमारी दृढ़ इच्छाशक्ति के अभाव को प्रदर्शित नहीं करता? क्या यह सब लोभ व स्वार्थ से प्रेरित नहीं है ? ये सारे प्रश्न सहज रूप से देश के चिंतनशील व्यक्ति के मस्तिष्क पटल पर उभरते हैं। इनका समाधान कौन करेगा।
आज का युग अर्थ प्रधान है-वह भौतिकवाद की एकाकी राह पर चल रहा है। वह चेतना के संवेदनशीलता से परे हैं, जो हमें चरित्रवान एवं अनुशासित रखता है। इन दोनों के युग्म से ही व्यक्तित्व का विकास होता है। व्यक्तित्व का विकास निर्माण से संभव है। स्व-निर्माण भौतिकवाद के श्रेष्ठ मस्तिष्क या प्रतिभा या अध्यात्म की संवेदनशील चरित्रनिष्ठा से ही संभव है। इससे कम में क या हम व्यक्ति के निर्माण की कल्पना कर सकते हैं? आज के अर्थ युग में युवा मस्तिष्क में यह बातें क्यों उभर रही हैं? वह तो बिना लगाम के भाग रहा है। लगाम तो अध्यात्म ही लगा सकता है, जो त्याग व बलिदान से प्रेरित है परंतु आज का युवा-स्वामी विवेकानंद जी द्वारा बताई राष्ट्र के निर्माण की शिक्षा पर चलने को तैयार दिखाई नहीं देता। बातों को ज़रूर सुन लेता है तथा उसकी प्रशंसा भी करता है।
बौद्धिक प्रतिभा एवं आर्थिक संपन्नता आज के युग की माँग है। भारत की युवा प्रतिभाएँ अपने बौद्धिक विकास के कारण अमेरिका, कनाडा, फ्रांस, इंग्लैंड तथा जापान आदि राष्ट्रों में कार्यरत हैं तथा उनकी माँग विदेशों में बढ़ती जा रही है। 15 से 35 वर्ष की आयु ही युवावस्था कहलाती है।
इसके बाद प्रौढ़ावस्था आ जाती है। युवावस्था में हमारे शरीर का विकास होता है तथा हमारी अंतःस्रावी ग्रंथियाँ सजग होती हैं। शरीर पुष्टता को प्राप्त होता है। यदि इससे प्राप्त शक्ति का हम सदुपयोग करते हैं तो हमारी शक्ति स्थिर रहती है अन्यथा इस शक्ति का दुरुपयोग, हमारे शरीर का संहारक बन जाता है। आज का युवा इस शक्ति के दुरुपयोग में लगा हुआ है। वह नशीले पदार्थों के द्वारा इसे नष्ट कर रहा है। नशीले पदार्थों का मन व मस्तिष्क पर कुप्रभाव पड़ता है। इससे शरीर भी प्रभावित होता है।
नशीले पदार्थों के सेवन से हमारा मन, मस्तिष्क व शरीर उसके (नशीले पदार्थों के) प्रभाव में आ जाता है। हमारी अंत:स्रावी ग्रंथियों पर भी कुप्रभाव पड़ता है। इससे युवाओं की यौवन शक्ति का ह्रास होता है तथा उनमें बुढ़ापे के लक्षण दिखाई देने लगते हैं। वह बीमारियों का शिकार हो जाता है। यह हमारी गलत आदतों का परिणाम है। अच्छी आदतें हमें संस्कारित करती हैं इससे हमारे अंदर संस्कार पैदा होते हैं, संस्कारों से संस्कृति का निर्माण होता है।
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