महानगरों में बढ़ता प्रदूषण
परिवर्तन प्रकृति का नियम है। विश्व में प्रतिदिन नए-नए आविष्कार हो रहे हैं। इन आविष्कारों में वर्तमान युग को ‘विज्ञान युग’ बना डाला है। विज्ञान ने मानव को इतना सक्षम बना दिया है कि अब मनुष्य धरती, आकाश, जल सर्वत्र अपनी विजय पताका फहरा रहा है, किंतु विज्ञान का दामन पकड़कर अपनी चिरसहरी प्रकृति की उपेक्षा करके मानव ने स्वयं ही अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार ली है। विज्ञान ने अमूल्य उपहार देने के साथ-साथ कुछ ऐसी समस्याएँ भी उत्पन्न कर दी हैं जिनको अनदेखा नहीं किया जा सकता। इन्हीं समस्याओं में एक है-प्रदूषण। वातावरण का दोषपूर्ण हो जाना ही प्रदूषण है, वैसे तो प्रदूषण की समस्या से छोटे-छोटे शहर, कस्बे आदि भी बचे नहीं हैं, तथापि प्रमुखतः यह समस्या महानगरों में अपना विकराल रूप धारण कर रही है।
कवि ने महानगर के प्रदूषण पर व्यंग्य करते हुए कहा है –
महानगरों में प्रदूषण में कई रूप दृष्टिगोचर होते हैं यथा वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण, ताप प्रदूषण, मृदा प्रदूषण आदि। महानगरों में कल कारखानों के जाल बिछे हैं, यातायात विकसित हैं, आणविक प्रयोग होते रहते हैं, जनसंख्या अधिक होती है। यही सब प्रदूषण के कारण बन जाते हैं। महानगरों में औद्योगीकरण प्रदूषण का प्रमुख कारक है। कारखानों की चिमनियों से निकलने वाला धुआँ, गैस, राख वायुमंडल में पहुँचकर वायु को प्रदूषित करते हैं। फ़सलों के लिए प्रयुक्त होने वाले कीटनाशक पदार्थ छिड़काव के दौरान वाय में मिल जाते हैं और अनेक हानिकारक संघटक बना देते हैं। यातायात के साधन जैसे ट्रक, बसें, स्कूटर आदि वायु में कार्बन मोनोऑक्साइड, सीसा, नाइट्रोजन ऑक्साइड जैसे घातक पदार्थ वायु में छोड़ते हैं।
महानगरों में प्रायः कूड़े-कचरों का विसर्जन करने के लिए इसे नदी के जल में बहा देते हैं। इतना ही नहीं, मल-मूत्र, सफ़ाई करने के उपरांत बचा गंदा पानी, कारखाने का दूषित जल, पशु, शव आदि भी नदी के जल में आकर मिलते हैं, जो जल प्रदूषण करते हैं। प्रदूषण बढ़ाने में रही-सही कसर पूरी करते हैं-दिन-रात शोर करते लाउडस्पीकर, मशीनें, वाहन, बैंड-बाजे आदि। प्रात:काल पूजास्थलों से आने वाले कीर्तन स्वर से लेकर ‘रात्रि जागरण’ तक ध्वनि विस्तार अनिवार्य बन चुके हैं। ‘ध्वनि प्रदूषण’ मानवीय श्रवण क्षमता को क्षति पहुँचाता है। इससे मनुष्य में चिड़चिड़ापन, स्नायुरोग, एलर्जी, श्वास की कुछ बीमारियाँ, अनिद्रा, थकावट, तनाव, उच्च रक्तचाप, आदि उत्पन्न हो जाते हैं। ‘वायु प्रदूषण’ से मनुष्य में श्वसन संबंधी अनेक विकार उत्पन्न हो जाते हैं। इससे फेफड़ों का कैंसर, दमा, खाँसी, जुकाम आदि बीमारियाँ लग जाती हैं।
‘जल प्रदूषण’ महानगरों की विकट समस्या है। महानगरों में अशुद्ध जल को शुद्ध करके पीने योग्य बनाया जाता है। वैज्ञानिक विधियों से स्वच्छ किया गया नदियों का गंदा पानी जन-जन तक पहुँचते-पहुँचते अपने अंदर अवांछनीय पदार्थों को समाहित कर लेता है। इस जल को पीने से पाचन प्रणाली में अनेक दोष उत्पन्न हो जाते हैं।
‘मृदा प्रदूषण’ से भूमि की उर्वरा शक्ति क्षीण होती है और हरियाली का विनाश होता है जिससे मानव स्वास्थ्य के लिए अनिवार्य पदार्थ उपलब्ध नहीं हो पाते।
इस प्रदूषण की समस्या का निराकरण करने के लिए सर्वप्रथम बढ़ती जनसंख्या पर नियंत्रण रखना होगा। प्राकृतिक संतुलन को बनाए रखने के लिए अधिकाधिक पेड़-पौधे लगाने होंगे। कारखानों की चिमनियों को ऊँचा करना होगा व उन्हें शहर से बाहर स्थापित करना होगा। जिस प्रकार सरकार ने गंगा नदी के जल का प्रदूषण रोकने के लिए ‘गंगा विकास प्राधिकरण’ बनाया है, उसी प्रकार अन्य अनेक अधिकरणों के माध्यम से प्रदूषण नियंत्रण में सरकार को अहम् भूमिका निभानी होगी। सबसे बढ़कर, जनता को यह समझना होगा कि ‘पेड़ पृथ्वी के फेफड़े हैं’ अतः लोग वन-कटाव न करके वन-संरक्षण करें ताकि प्रदूषण पर नियंत्रण रखा जा सके।
निष्कर्षतः यदि जन-स्वास्थ्य सुरक्षित रखना है तो अभी से प्रदूषण समस्या के निराकरण की ओर पूर्ण ध्यान देना होगा। तभी और केवल तभी इस विकराल समस्या का समाधान संभव है।
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