शहरी जीवन : ‘वरदान भी, अभिशाप भी
अथवा
‘गाँव भला या शहर’
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। वह अकेला नहीं रह सकता। उसे लोगों के समूह में, परस्पर मिल-जुलकर ही रहना पड़ता है। भले ही वह किसी शहर में रहे या गाँव में। प्रत्येक मनुष्य उसी स्थान पर रहना पसंद करता है जहाँ जीवन की आवश्यकताएँ आसानी से पूरी हो सकें। यही कारण है कि शहर में रहना वरदानमय है।
शहरों में पक्के गगनचुंबी मकान हैं, चिकित्सा, मनोरंजन, परिवहन, रोजगार, शिक्षा आदि हर सुविधा सुलभ है। शहर में बिजली व पानी की व्यवस्था चौबीस घंटे होती है। यहाँ रोज़गार के अवसर तो इतने व्यापक हैं कि प्रत्येक शिक्षित, अर्धशिक्षित, अशिक्षत किसी न किसी कार्य में लगकर अपने जीवन की गाड़ी सरलता से खींच सकता है। शहरों में व्यापारिक केंद्र, औद्योगिक संस्थान, सरकारी कार्यालय, अर्धसरकारी व व्यक्तिगत कार्यालय लोगों की रोज़गार की समस्या को सुलझाने के लिए मौजूद होते हैं। शहरों में चिकित्सा के लिए सुयोग्य डॉक्टर, नर्से मिल जाती हैं। शिक्षा मानव-जीवन के लिए प्रकाश स्तंभ है। शिक्षा प्राप्ति के लिए विद्यालय, महाविद्यालय, विश्वविद्यालय शहरों में ही होते हैं। शहरों में जीवन की नीरसता को समाप्त करने वाले मनोरंजन केंद्र, सिनेमा घर, प्रदर्शनियाँ, नाटक मंडल आदि चप्पे-चप्पे पर दृष्टिगोचर होते हैं।
शहरों में पक्की सड़कों, पटरियों आदि का जाल बिछा होता है जो देश के विभिन्न हिस्सों को एक-दूसरे से जोड़ देते हैं। इन सड़कों पर दौड़ते हुए साइकिल, स्कूटर, मोटरगाड़ियाँ, बसें, ताँगे जीवन की गतिशीलता का आभास कराते हैं। रात्रि में विद्युत की चकाचौंध ऐसा आभास देती है मानो आकाश धरती पर उतर आया हो।
किंतु यह तो तसवीर का केवल एक ही रूप है। इसका दूसरा पक्ष उतना ही मलिन है, जितना की उज्ज्वल। शहर कृत्रिमता की खान हैं। गंदगी की भंडार है, प्रदूषण के स्थायी विश्रामगृह है। शहरी जीवन की भागमभाग में किसी के पास इतना समय ही नहीं होता कि दूसरे के सुख-दुख में साथ निभाएँ। हाँ, औपचारिकताएँ अवश्य निभा दी जाती हैं। शहर में प्रत्येक व्यक्ति अपने असली चेहरे पर एक मुखौटा चढ़ाए रहता है। आवागमन की सुविधाएँ भी वातावरण में प्रदूषण का जहर उगलती हैं। यहाँ की प्रमुख विशेषता है जो लोगों के शरीर को व्याधिमंदिर बना देती हैं। भले ही यह सही है कि शहरों में बड़े-बड़े भवन, अट्टालिकाएँ होती हैं, किंतु वे नसीब कितने लोगों की होती हैं ? शहरों में रहते हुए कई लोगों को तो झोपड़ी तक नहीं मिल पाती क्योंकि आवास अत्यंत महँगे होते हैं। दुर्घटनाओं के जितने भी समाचार सुनने में आते हैं, उनमें से अधिकांश तो शहरों में ही घटित होते हैं। यह शहरी जीवन का अभिशापमय रूप है। इस विषय में प्रसाद की ये पंक्तियाँ पूर्णतया सही हैं –
“यहाँ सतत् संघर्ष, विफलता, कोलाहल का यहाँ राज है।
अंधकार में दौड़ लग रही, मतवाला यहाँ सब समाज है॥”
अब आइए, ग्रामीण जीवन की ओर भी दृष्टिपात करें। गाँवों में स्थिति शहरों के विपरीत है। गाँव में बड़े-बड़े मकान दिखाई देते हैं जिन्हें मकान कम और मिट्टी के घेराबंदी कहना अधिक उपयुक्त प्रतीत होता है। मिट्टी की सोंधी-सोंधी खुशबू, हरे-हरे पौधों के बीच में अपने सिर उठाए सरसों के पीले फूल व पलाश के फूलों की लाली देखकर लगता है मानो धरती ने हरे वस्त्रों पर पीली चुनरिया ओढ़कर माँग में लाल सिंदूर भर लिया हो। मंद-मंद बहती हुए स्वच्छ वायु हृदय को प्रफुल्लित कर देती है। गाँव के नैसर्गिक सौंदर्य पर रीझकर सहृदय बराबर कह उठता है –
अहा! ग्राम्य जीवन भी क्या है,
ऐसी सुख शांति व सुंदरता और कहाँ है?
गाँवों में आत्मीयता के वास्तविक स्वरूप के दर्शन होते हैं। तीज, त्योहार, मेले, रामलीला, कठपुतली का नाच, नौटंकी आदि मनोरंजन के सस्ते साधन द्वारा लोग अपना मन बहलाते हैं व एक दूसरे के सुख-दुख में भागीदार बनते हैं। गाँव का जीवन सरल, सादा व कम खर्च में निर्वाह-योग्य होता है।
ऐसा नहीं है कि गाँव में रहकर किसी प्रकार का कष्ट नहीं सहना पड़ता, जहाँ फूल होंगे, वहाँ काँटे भी अवश्य होंगे। अत: ग्रामीण जीवन के साथ भी कुछ दुख जुड़े हैं। गाँवों में आवागमन, शिक्षा, चिकित्सा, रोज़गार आदि के साधनों की कमी होती है। परिवहन के नाम पर यहाँ चींटी की चाल से चलने वाले ताँगे या कछुए की तरह रेंगती बैलगाड़ियाँ होती हैं। शिक्षा के क्षेत्र में अधिकांश गाँवों में प्राइमरी शिक्षा के बाद ही पूर्ण विराम लग जाता है। प्रायः गाँवों में प्राथमिक चिकित्सा केंद्र ही होते हैं जहाँ चिकित्सा की सुविधाएँ गधे के सिर से सींगों की भाँति गायब होती हैं। गाँव रूढ़ियों, अंधविश्वासों के भी गढ़ होते हैं। आय का प्रमुख साधन मात्र कृषि ही होती है। अपवाद रूप में कुटीर उद्योग भी मिल सकते हैं।
निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि शहरी जीवन एक वरदान है या अभिशाप, यह निर्णय करना तो व्यक्ति के दृष्टिकोण पर निर्भर करता है। वास्तविक यह है कि न तो शहर बुरा है न गाँव। यदि शहर देश का तन है तो गाँव उसकी आत्मा। दोनों का अस्तित्व एक-दूसरे के बिना संभव नहीं।

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