नदी की आत्मकथा

मैं ‘नदी’ हूँ। जी हाँ, वही नदी जिसे आप तटनी, तरंगिणी, सरिता और भी न जाने कितने नामों से पुकारते हैं। मेरा जन्मस्थान पर्वत प्रदेश है। पहाड़ी मेरी माता है और समुद्र मेरा पिता। जन-कल्याण मेरा धर्म है और निरंतर प्रवाह मेरा कर्म। मेरे इन्हीं गुणों के कारण लोग मझे ‘दरिया’ और ‘प्रवहिणी’ भी कहते हैं। मैं पहाड़ के गर्भ से उत्पन्न होकर विभिन्न टेढ़े-मेढ़े मार्गों से गुज़रती हुई, मार्ग की बाधाओं को पार कर, अपने गंतव्य समुद्र में जा मिलती हूँ।

मेरा बाल्यकाल हिम से ढकी चोटियों से छेड़खानी करते हुए, हरी-भरी घटियों में उछलते हुए तथा वृक्ष-लताओं से लुकाछिपी खेलते हुए बीता। बाल्यकाल में मैं घाटियों को लांघकर शिलाओं को तोड़ती हुई मैदान की ओर बढ़ी। अपने साथ लाई हुई उपजाऊ मिट्टी मैंने मैदानों को सौंपी। मेरे कई भाग हो गए। मुझमें से कुछ छोटी-छोटी नहरें निकाली गई। मैंने अपने जल से धरती का सिंचन किया। बंजर धरी को हरा-भरा किया। मिट्टी से सोना उपजाया।

प्राणियों के प्राणों का आधार मैं ही बनी। लोगों ने मेरे अमृत-सदृश जल को भी हरा-भरा किया। मिट्टी से सोना उपजाया। उत्तर में ‘गंगा’, ‘यमुना’, कही गई तो दक्षिण में मुझे ‘कृष्णा’, ‘कावेरी’, ‘गोदावरी’, ‘महानदी’ आदि नाम मिले। पूर्व में मुझे ‘ब्रह्मपुत्र’ कहा गया और पश्चिम में मुझे ‘सिंधु’ की पदवी पर आसीन किया गया। भले ही लोग किसी भी नाम से पुकारें, मैं हूँ तो वही इठलाती, बलखाती, मस्त, चंचल जलधारा ही।

युवावस्था तक आते-आते मेरे आकार में वृद्धि हो गई। मैंने अपने साथ लाई मिट्टी को मैदानों में बिछा दिया। दूर-दूर तक मेरी लहरों में नर्तन होने लगा। लोग मुझे देखते, मेरा जल पीते, उसमें स्नान करते और आनंदित

होते। मेरी स्वच्छ, शीतल, दुग्ध-धवल काया को देखकर पंत जी कह उठे –

“सैकत शय्या पर दुग्ध-धवल, तन्वंगी गंगा, ग्रीष्म-विरल,
लेटी हैं श्रांत, क्लांत निश्चल।
तापस बाला गंगा निर्मल, शशि मुख से दीपति मृदु-करतल,
लहरे उन पर कोमल कुंतल।”

सच, मेरी महिमा को जानकर ऋषि-मुनियों ने मेरी पूजा-अर्चना आरंभ कर दी। उन्होंने मेरे तट पर तीर्थ बना डाले। वहाँ लोगों का आना-जाना आरंभ हो गया। मेले-उत्सव होने लगे। ‘कुंभ का मेला’ तो जगतप्रसिद्ध है, यह मेरे तट पर ही तो लगता है। मेरा जल पापियों को पापकर्म से मुक्ति दिलाने वाला है, अशांत हृदय को शांति देने वाला है और रोगों का निवारण करने वाला है। इसीलिए अमावस्या, पूर्णमासी, कार्तिक-स्नान, दशहरा आदि अवसरों पर लोग विशेष रूप से मेरे दर्शन करने आते हैं।

परोपकार में मुझे भी हार्दिक आनंदानुभूति होती है। मैं अपने सौंदर्य से हर किसी को आकर्षित करने की क्षमता रखती हूँ। नीलांबर के नीचे मेरा निरंतर प्रवाह जीवन प्रवाह का स्मरण कराता है। रात्रिकाल में चंद्रमा की चाँदनी मेरे सौंदर्य को द्विगुणित कर देती है। ऐसे वातावरण में मेरी लहरें मेरी काया पर लिपटी साड़ी के समान प्रतीत होती हैं। इसी कारण चित्रकार व कवि दोनों ही मेरे प्रेम में दीवाने हैं। जब भी कोई कलाकार प्रकृति चित्रण करने बैठता है तो सर्वप्रथम उसका ध्यान मेरी ओर ही आकर्षित होता है। मैं नौका-विहार के लिए भी खुला निमंत्रण देती हूँ।

मेरे कल्याणकारी कार्यों के क्या कहने। आखिर मैं अपनी प्रशंसा स्वयं कैसे करूँ? पर यह तो सभी जानते हैं कि मेरे ही जल को बांधकर बिजली का उत्पादन किया जाता है। इसी विद्युत से कल-कारखाने चलते हैं। यही विद्युत समस्त मानव सभ्यता की रीढ़ है, सुख-सुविधाओं की जननी है। यदि मेरे शरीर से यह विद्युत उत्पन्न न हुई होती तो क्या मानव इस तरह घर पर बैठा देश-विदेश के कार्यक्रमों को रेडियो, टेलीविज़न पर देख पाता? अंधकार का मुँह तोड़ पाता? मनोरंजन के साधन का प्रयोग कर पाता? अरे, तब तो मानव के सारे सपने धूल में लोट रहे होते।

जीवित तो जीवित, यहाँ तक कि लोग मृत्यु-पश्चात् भी मेरा सामीप्य नहीं छोड़ना चाहते। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है-महान् नेताओं की समाधियों का मेरे तट पर स्थापित होना व मृत्यु-उपरांत मुझमें अस्थि विसर्जन करना। खैर, मैं अपने यौवनकाल में प्राणदायिनी, सुखदायिनी, मोक्षदायिनी होने के सभी कर्तव्य निभाती हूँ।

युवावस्था में जोश होना भी स्वाभाविक होता है। अत: कभी-कभी क्रोध में आकर मैं महाविनाश भी ला देती हूँ। बाढ़ के समय मैं किनारों को तोड़कर चारों ओर फैल जाती हूँ। गाँव के गाँव डुबो देती हूँ, जीवों को निगलती बदहवास हो जाती हूँ। तब मुझे कुछ उचित-अनुचित नहीं सूझता। मात्र विनाश ही मेरा कार्य रह जार्ता है। किंतु शीघ्र ही संयमित होकर मैं पुनः अपनी सीमा में आ जाती हूँ और अपने किए पर पश्चाताप करती हूँ। मेरे उस स्वरूप का वर्णन करते हुए गोपालसिंह नेपाली लिखते हैं –

आकुल, आतुर, दुख से कातर, सिर पटक रो रोकर।
करता है कितना कोलाहल, यह लघु सरिता का बहता जल॥

देश की सभ्यता और संस्कृति का विकास करती हुई मैं अपने जीवन के अंतिम चरण में आ पहुँची हूँ। अब न मुझमें पहले जैसा जोश है, न चंचलता, न उफान है, न तरंगों की व्याकुलता। अब मुझमें गंभीरता है। जैसे आत्मा का परमात्मा में मिलन होने पर मोक्ष प्राप्त होता है, उसी प्रकार मेरा भी समुद्र के साथ एकाकार मेरा मोक्ष है, मेरे जीवन की सफलता मेरी यही कामना है कि मैं सदा-सर्वदा इसी प्रकार बहती रहूँ व लोकमंगल करती रहूँ।


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