पाठ — 1 भक्ति — धारा (व्याख्या)

पद्य — भारती 

 पाठ — 1
विनय के पद (सूरदास)

पद्यांशो की सन्दर्भ एवं प्रसंग सहित व्याख्या

अवगति गति कछु, कहत न आवै।
ज्यो गॅगे ही मीठे फल को, रस अंतरगत ही भावै।
परम स्वाद सबही सुनिरंतर, अमित तोष उपजावै।।
मन — बानी को अगम अगोचर, जो जानै सो पावै।
रूप — रेख गुन, जाति जुगति बिनु, निरालंब मन चक्रत धावै।
सब विधि अगम विचारहि, ताते सूर सगुन पद गावै।।

संदर्भ — प्रस्तुत पद्यांश सूरदासजी के भक्ति के पद से अवतरित है। 
प्रसंग — सूरदासजी सगुण उपासना का महत्व प्रतिपादित करते हुए कहते हैं — 
व्याख्या — निर्गुण — निराकार ब्रम्हा के सम्बन्ध में कुछ भी कहा जाना कठिन हे। जिस प्रकार गूॅगा व्यक्ति मीठे फल को खाकर उसके मधुर स्वाद का अनुभव हदय में तो करता है, किन्तु उसका वर्णन नहीं कर पाता, उसी तरह व्यक्ति भी निराकार ब्रम्हा का अनुभव तो कर सकता है, किन्तु उसकी प्राप्ति के आनन्द की अनुभूति को वाणी द्वारा प्रकट नहीं कर सकता। निर्गुण ब्रम्हा, मन और वाणी के लिए अगम है। मन स्थिर करने का कोई आधार नहीं है। इसलिए मन निराश्रित, भ्रमित होकर भटकता फिरता है। सूरदासजी इसीलिए निर्गुण ब्रम्हा की बजाए सगुण ब्रम्हा की उपासना पर बल देते हैं।
काव्य सौन्दर्य — 
  1. दुष्टांत अलंकार का प्रयोग।
  2. सगुण भक्ति का प्रतिपादन।

हमारे प्रभु औगुन चित न धरौ।
समदरसी है नाम तुम्हारौ, मोई पार करौ।
इक लोहा पूजा में राखत, एक घर बधिक परौ।
सो दुविधा पारस नहीं जानत, कंचन करत खरौ।
इक नदिया, इक नार कहावत, मैलो नीर भरौ।
जब दोऊ मिलि एक बरन भए, सुरसरि नाम परी। 
तन माया ज्यों ब्रम्हा कहावत, सूर सुमिलि बिगरौ।
कै इनको निराधार कीजिए, के प्रन जात टरौ।।

संदर्भ — प्रस्तुत पद्यांश सूरदासजी के भक्ति के पद से अवतरित है। 
प्रसंग — सूरदासजी भवसागर से मुक्ति के लिए प्रार्थना करते हुए कहते है — 
व्याख्या — हे प्रभु! तुम हमारे अवगुणों पर ध्यान मत दीजिए। तुम्हारा नाम समदर्शी है, अत: तुम गुणी, अवगुणी दोनों की ही नैया पार करो। एक लोहा पूजा में रखा जाता है। एक लोहा कसाई के घर, किन्तु पारस इनमें भेद नहीं जानता है और दोनों को कंचन (सोना) कर देता है। एक नदी होती है, जिसमें अच्छा जल भरा होता है। एक नाला, जिसमें गंदा जल बहता है, किन्तु दोनों के मिलने से एक पवित्र नदी का रूप उपस्थित हो जाता है। ये तन जो है माया है, जो संसार में रहकर बिगड़ गया है। आप इसका उद्धार कीजिए। हमें मोहमाया के जाल से दूर कीजिए। 
मो सम कौन कुटिल खल कामी। 

तुम सौ कहा छिपाी करूनामय, सबके अंतरजामी। 
जो तन दियौ ताहि बिसरायौ, एसौ नोन — हरामी।
भरि — भरि द्रोह विषै कौ धावत, जैसे सूकर ग्रामी।
सुनि सतसंग होत जिय आलस, विषयिनि संग बिसरामी। 
श्री हरि चरन छॉडि विमुखनि की, निसि — दिन करत गुलामी।
पापी परम, अधम अपराधी, सब पतितनि मैं नामी। 
सूरदास प्रभु अधम — उधारन, सुनियै श्रीपति स्वामी। 

संदर्भ —  प्रस्तुत पद्यांश सूरदासजी के भक्ति के पद से अवतरित है। 
प्रसंग — स्वयं को पापी, अधमी बताकर कवि ने उद्धार की प्रार्थना की है। 
व्याख्या — सूरदासजी कहते हैं कि मेरे समान कौन कुटिल, दुष्ट और कामी है? आपके समान कौन करूणामय एवं अंतर्यामी है? आपने मुझे जो तन दिया, मैंने उस बिसार दिया, मैं बड़ा कृतध्न हॅू। मैं कामवासना, विषयवासना में सूअर के समान लिप्त रहा हॅू। सत्संग सुनने में मैंने हमेंशा आलस्य किया, विषयवासना में लिप्त रहा। सभी पापियों में मैं सबसे अधिक पापी, अधमी, अपराधी हूॅ। सूरदासजी कहते हैं कि हे प्रभु! आप मुझ अधम का उद्वार कीजिए। 

जापर दीनानाथ ढरैं।
सोई कुलीन, बडौ सुंदर सोई, जिहिं पर कृपा करै।
कौन विभीषन रंक निसाचर, हरि हॅसि छत्र धरै। 
राजा कौन बड़ो रावन तैं, गर्वहि — गर्व गरै।
रंक व कौन सुदामा हूॅ तै, आप समान करै। 
अधम कौन है अजामील तै, जम तहॅ जात डरै।
कौन विरक्त अधिक नारद तै, निसि दिन भ्रामत फिरै। 
जोगी कौन बड़ी संकर तै, ताको काम छरै।
अधिक कुरूप कौन कुब्जा तै, हरिपति पाइ तरै। 
अधिक सुरूप कौन सीता तै, जनम वियोग भरै।
य​ह गति — मति जानै नहि कोऊ, किहिं रस रसिक ढरै।
सूरदास भगवंत भजन बिनु, फिरि—फिरि जठर जरै।

संदर्भ — प्रस्तुत पद्यांश सूरदासजी के भक्ति के पद से अवतरित है। 
प्रसंग — सूरदाजी कहते हैं कि जिस पर दीनानाथ की कृपा होती है, उसी का उद्धार सम्भव है। 
व्याख्या — सूरदसजी कहते हैं कि वह बड़ा कुलीन व सुंदर है, जिस पर दीनानाथ की कृपा हो जाती है। कहॉ विभीषण राक्षस कुल का था, किन्तु हरि ने हॅसकर उसे छत्र धारण कराया। कौन राजा था, जिसकी गर्व दीन लिया। सुदामा के समान कौन गरीब था, जिसे धनवान बना दिया। रावण से बढ़कर कौन अधमी था, जिसे मार गिराया। नारद के समान कौन अधिक विरक्त है, जो भ्रमण करता रहता है। शंकर के समान कौन योगी है, जिसकी कामवासना को नष्ट कर दिया है। कुब्जा के समान कौन अधिक कुरूप है, जिसे भगवान ने तार दिया। सीता के समान कौन सुन्दर स्त्री है, जिसने जन्मभर वियोग सहा। सूरदास कहते है कि भगवान के भजन बिना उद्धार सम्भव नहीं है। 

स्तुति — खण्ड (मलिक मुहम्मद जायसी)

पद्यांशों की सन्दर्भ एवं प्रसंग सहित व्याख्या — 

सॅवरौ आदि एक करतारू। जेहॅ जिउ दीन्ह कीन्ह संसारू।।
कीन्हेसि प्रथम जोति परगासू। कीन्हेसि तेहिं पिरीति कवितासू।।
कीन्हेसि अगिनि पवन जल खेहा। कीन्हेसि बहुतइ रंग उरेहा।।
कीन्हेसि धरती सरग पतारू। कीन्हेसि बरन — बरन अवतारू।।
कीन्हेसि सात दीप ब्रम्हाण्डा। कीन्हेसि भुवन — चौदहउ खंडा।
कीन्हेसि दिन दिनकर ससि राती। कीन्हेसि नखत तराइन पॉती।
कीन्हेसि धूप सीउ और छाहॉ। कीन्हेसि मेघ बिषु तेहि माहॉ।।
कीन्ह सबइ अस जाकर दोसरहि छाज न काहु। 
पहिलेहिं तेहिन नाउॅ लइ कथाा कहॉ अवगाहु।।

संदर्भ — प्रस्तुत पद्यांश मलिक मोहम्मद जायसी द्वारा रचित 'स्तुतिखण्ड' से लिया गया है।

प्रसंग — प्रस्तुत पद्यांश में ईश्वर द्वारा रचित संसार की सृष्टि के बारे में बताया गया है। 

व्याख्या — ईश्वर ने इस सम्पूर्ण सृष्टि की रचना की है। उसी ने प्रथम ज्योति जगाई, प्रकाश फैलाया। उसकी ने ​कविताओं में प्रीति उत्पन्न की। अग्नि, पवन, जल सभी उसी ने निर्मित किए। उसी ने प्रकृति में बहुरंग उत्पन्न किए। धरती, स्वर्ग, पाताल का निर्माण उसी ने किया है। सात दीप, ब्रम्हाण्ड, चौदह भवन उसी ने बनाए हैं। दिन — रात, सूर्य — चंद्रमा उसी ने निर्मित किए हैं। धूप, छॉव, बादल, बिजली सभी उसी की देन हैं। आपके द्वारा बनाए इस संसार में कहीं कोई दोष नहीं है। पहले मैं तुम्हें नतमसतक करता हॅू, फिर आगे की बात कहता हूॅ। 

कीन्हेसि हेव समुद्र अपारा। कीन्हेसि मेरू खिखिंद पहारा। 
कीन्हेसि नदी नार औझारा। कीन्हेसि मगर मछ बहु बरना।।
कीन्हेसि सीप मोति बहु भरे। कीन्हेसि बहुतइ नग निरमरे।।
कीन्हेसि वनखंड औ जरि मूरि। कीन्हेसि वरिवर तार खजूरी।।
कीन्हेसि साइज आरन रहही। कीन्हेसि पंखि उड़हि जहॅ चहहीं।।
कीन्हेसि बरन खेत औ स्वामा। कीन्हेसि भूख, नींद विसरामा।।
कीन्हेसि पान फूल बहु भेागू। कीन्हेसि बहु ओपद बहु रोगू।।
लिमिख न लाग कर ओहि सवइ कीन्ह पल एक।
गगन अंतरिख राखा बाज खंभ बिनु टेक।।

संदर्भ — प्रस्तुत पद्यांश मलिक मोहम्मद जायसी द्वारा रचित 'स्तुतिखण्ड' से लिया गया है।

प्रसंग — ईश्वर द्वारा रचित इस संसार सृष्टि के बारे में बताया गया है। 

व्याख्या — ईश्वर ने अपार समुद्र की रचना की है। पहाड़ बनाए हैं। नदी, नाले, मगर, मछली आदि सभी की रचना की है। मोती भरे सींप, नग, रत्न बनाए है। वनखंड, जड़ी — बूटी, ताड़, तरूवर सभी उसी ने बनाए हैं। पक्षियों को उड़ने के लिए पंख उसी ने दिए है। उपजाऊ खेत, खलिहान उसी ने बनाए। भूख, प्यास, नींद, विश्राम उसी ने निर्मित किए। पान, फूल, औषधि, रोग उसी की देन है। इन सभी को निर्मित करने में उसे एक पल भी नहीं लगता है। गगन, अंतरिक्ष बिना खंभे, व सहारे के टिके हुए हैं।

कीन्हेसि मानुस दिहिस बड़ाई। ​कीन्हेसि अन्न भुगुति तेहि पाई। 
कीन्हेसि राजा भूॅजहि राजू। कीन्हेसि हस्ति घारे तिन्ह साजू। 
कीन्हेसि तिन्ह कहॅ बहुत वेरसू। कीन्हेसि कोई ठाकुर कोई दासू।
कीन्हेसि दरब गरब जेंहि होई। कीन्हेसि लोभ अधार न कोई।।
कीन्हेसि जिअन सदा सब चाहा। कीन्हेसि मीचु न कोई रहा। 
कीन्हेसि सुख औ कोउ अनंदू। कीन्हेसि दु:ख चिंता औ दंदू।
कीन्हेसि कोई निमरोसी कीन्हेसि कोई बरिआर। 
छार हुते सव कीन्हेसि, पुनि कीन्हेसि सब छार।।

संदर्भ — प्रस्तुत पद्यांश मलिक मोहम्मद जायसी द्वारा रचित 'स्तुतिखण्ड' से लिया गया है।

प्रसंग — इस पद्यांश में ईश्वर द्वारा निर्मित सृष्टि का वर्णन किया गया है। 

व्याख्या — ईश्वर ने मनुष्य की रचना की है, उसके लिए अन्न, भोजन बनाया है। राजा के लिए राज्य और हस्ति, अश्व जैसी साज सज्जा निर्मित की है। किसी को उसने राजा, तो किसी को रंक बनाया है। सभी में जीने की चाह उत्पन्न की है।, कोई भी मृत्यु से बच नहीं ​सका है। सुख — दुख, आनंद—चिंता सभी भाव उसी ने निर्मित किए हैं। किसी को भिखारी, किसी को धनी बनाया हैक्। संपत्ति, विपत्ति उसी की देन है। किसी को वीर तो किसी को निर्भय बनाया है। सभी इसी मिट्ठी में जन्म लेते है और इसी में मिल जाते हैं।

विनय के पद प्रश्न — उत्तर  

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